अंग्रेज़ नहीं, अपितु एशियाई हैं यीशु
यीशु मसीह एशियाई थे - एक भूगोलिक सत्य
यीशु मसीह एशियाई थे - यह एक भूगोलिक सत्य है, क्योंकि यदि हम पूर्व से पश्चिम की ओर जाएं, तो इस्रायल - एशिया का अन्तिम देश है और यीशु उसी देश के बैतलहम में पैदा हुए थे और इसी लिए उन्हें किसी भी प्रकार से गोरे अंग्रेज़ नहीं कहा जा सकता। परमेश्वर ने एक ग़रीब बढ़ई (कारपैन्टर) युसफ़ को उनका दुनियावी पिता बनाया था, जो सदा सख़्त परिश्रम करने में विश्वास रखते थे और यीशु ने भी परिश्रम करना सिखाया। बाईबल में थिस्सलुनिकियों की दूसरी पत्री के तीसरे अध्याय की 10वीं से लेकर 12वीं आयत तक बहुत स्पष्ट लिखा है कि - ‘‘... यदि कोई काम नहीं करना चाहता, तो उसे भोजन भी नहीं खाना चाहिए। क्योंकि हमने सुना है कि कुछ ऐसे लोग भी यहां पर मौजूद हैं, जो बिल्कुल भी कोई काम नहीं करते परन्तु अन्य लोगों के कार्यों में दख़्ल देते हैं। ऐसों को हम प्रभु यीशु मसीह में आज्ञा देते व समझाया करते हैं कि वे चुपचाप काम करके ही अपनी रोटी खाया करें।’’ इस प्रकार आलसी लोगों व दूसरों के फट्टे में टांग अड़ाने वालों का मसीही धर्म व समुदाय में बिल्कुल कोई स्थान नहीं है।
यीशु किन्हीं विशेष व्यक्तियों को नहीं, अपितु सभी को आज भी अपने पास बुलाते हैं
यीशु मसीह तो मत्ती 11ः28 में यही कहते हैं,‘‘ऐ थके-मांदे व बोझ से दबे हुए लोगो, मेरे पास आओ मैं तुम्हें आराम दूँगा।’’ यीशु मसीह ने किसी धर्म-विशेष के लोगों को अपने पास नहीं बुलाया था, वह तो सभी को (चाहे वे किसी भी धर्म या विश्वास के मानने वाले हों) अपने पास बुला कर इस विश्व को शांति का संदेश देना चाहते थे। वह तो ऐसा भी कहते थे कि ‘‘जो तेरे एक गाल पर थप्पड़ मारे, उसकी ओर दूसरा भी फेर दे; ओर जो तेरा चोगा छीन ले, उसको कुर्ता लेने से भी न रोक।’’ (लूका 6ः 29)।
हर समय क्षमा करते हैं यीशु
वास्तव में ऐसी बात कहना भी बहुत बड़े धैर्य व अक्षय वीरता की निशानी है। क्योंकि यहां तो अधिकतर धर्मों के संस्थापक हाथों में बड़े-बड़े हथियार लेकर खड़े दिखाई देते हैं। आँख के बदले आँख निकालने की बातें की जाती हैं। कोई धार्मिक नेता कहीं पर खड़ा होकर यह कहता हुआ दिखाई देता है कि इस फलां व्यक्ति ने हमारे धर्म के बारे में ऐसा कहने की जुर्रत की है - इसे ख़त्म कर दो। परन्तु यीशु मसीह ने तो उन लोगों को भी तत्काल उसी समय ही ‘‘हे पिता, इन्हें क्षमा कर क्योंकि ये नहीं जानते कि ये क्या कर रहे हैं’’ (लूका 23ः34) कहते हुए क्षमा कर दिया था, जब वे उन पर कोड़े बरसा रहे थे, थूक रहे थे तथा अत्यधिक बुरा-भला कह रहे थे। हम मसीही भाईयों की तो यही संस्कृति है। यीशु मसीह व उनके मसीही अनुयायियों ने क्षमा करने व अहिंसा के सिद्धांतों द्वारा ही विश्व के अधिकतर भागों को जीता है।
अहिंसा प्रमुख थी यीशु के लिए
अन्य बहुत से धर्म ऐसे हैं, जिनके चित्रों में धर्म-गुरुओं को प्रायः कोई न कोई हथियार लिए दिखाया गया होता है। परन्तु यीशु मसीह का आपने ऐसा चित्र कभी नहीं देखा होगा, क्योंकि वह तो ‘कोई आपके एक गाल पर थप्पड़ मारे, तो दूसरा गाल भी आगे कर दो’ की अहिंसापूर्ण नीति पर चलने वाले रहनुमा थे। इसी लिए भारत में ज़बरदस्ती धर्म-परिवर्तन किए जाने की कहीं कोई उदाहरण नहीं दी जा सकती। यदि कोई ऐसा करता है, या कभी किसी ने ऐसा कुछ किया है, तो एक सच्चा मसीही उस की सख़्त निंदा व भर्तसना ही करेगा।
माफ़ करने के लिए जिगर चाहिए यीशु मसीह जैसा
इस तथ्य से भी सभी वाकिफ़ हैं कि यीशु मसीह ने उन सभी को सब के सामने तत्काल क्षमा कर दिया था, जिन्होंने उन पर अत्याचार ढाहे थे। तब वह चाहे सलीब पर अत्यंत दुःख झेल रहे थे परन्तु उन्होंने यही कहा था कि - ‘‘हे पिता (परमेश्वर)! उन्हें माफ़ कर, क्योंकि वे नहीं जानते कि वे क्या करते हैं।’’ एक सच्चा मसीही सचमुच इन्हीं बातों पर चलता है परन्तु कई बार अन्य लोग इस बात पर विश्वास नहीं करते। लोग यही समझते हैं कि आज के स्वार्थी विश्व में कोई ऐसा कैसे कर सकता है परन्तु यह सत्य है। अधिकतर मसीही यीशु मसीह की इस उदाहरण का हर संभव हद तक सदैव अनुपालन करने का प्रयत्न करते हैं।
पोप जौन पौल-द्धितीय पर जब 13 मई, 1981 को वैटिकन सिटी के सेंट पीटर स्कवेयर पर कातिलाना हमला हुआ था और मेहमत अली ऐग्का नामक एक व्यक्ति ने उन्हें गोलियां चला कर बहुत बुरी तरह से ज़ख़्मी कर दिया था, तब इटली की अदालत ने इस सारे मामले की सुनवाई करते हुए उसे आजीवन कारावास का दण्ड दिया था। परन्तु तब तक पोप जौन पौल-द्वितीय ठीक हो चुके थे और उन्हें जब उस व्यक्ति को दण्ड दिए जाने संबंधी मालूम हुआ तो उन्होंने तत्काल अपने एक ब्यान में यह कहा था कि वह उस आरोपी को क्षमा करते हैं, उसे दण्ड न दिया जाए। तब इटली के राष्ट्रपति कार्लो अज़ेजिलो किआम्पी ने भी उस आरोपी को क्षमा करते हुए जून 2000 में क्षमा करते हुए उसे इटली से निकाल कर तुर्की भेज दिया था। आरोपी मूल रूप से बल्गारिया के नगर सोफ़िया का रहने वाला था। ऐसी मिसालें कोई मसीही व्यक्ति ही कायम कर सकता है इतना धैर्य केवल यीशु मसीह ही अपने अनुयायियों को दे सकता है। ऐसा कार्य करने या मिसाल कायम करने के लिए यीशु मसीह जैसा ही जिगर चाहिए।
दुनिया में क्षमा करने की अनेक वर्णनीय मिसाले कायम कीं मसीही लोगों ने
इसी प्रकार 23 जनवरी, 1999 को जब भारत के उड़ीसा राज्य के क्योंझार ज़िले के मनोहरपुर गांव में कुछ कट्टरपंथी हिन्दु मूलवादियों ने 58 वर्षीय आस्ट्रेलियाई मसीही प्रचारक ग्राहम स्टेन्स, उनके दो पुत्रों फ़िलिप (10 वर्ष) तथा तिमोथी (6 वर्ष) को उन्हीं की गाड़ी में ज़िन्दा जला कर मार दिया था। तो मामले की सुनवाई के दौरान ही मृतक ग्राहम स्टेन्स की विधवा ग्लैडी स्टेन्स ने मुख्य आरोपी दारा सिंह को क्षमा कर दिया था। परन्तु अदालत ऐसी भावनात्मक बातों को क्योंकि नहीं मानती, अतः दारा सिंह व अन्य आरोपियों की उम्र कैद की सज़ा कायम रखी गई थी। यह बातें केवल एक मसीही ही कर सकता था।
यीशु का ही अहिंसा का सिद्धांत अपनाया था गांधी जी ने
महात्मा गांधी जब इंग्लैण्ड में वकालत की पढ़ाई करने तथा फिर बाद में दक्षिण अफ्ऱीका में गए थे; तब वह प्रायः अपने कुछ अंग्रेज़ मसीही मित्रों के साथ गिर्जाघर जाया करते थे। वहां पर उन्हें यीशु मसीह का अहिंसा का पाठ बहुत अच्छा लगा था। उन्होंने तभी उस सिद्धांत को अपने जीवन में लागू कर लिया था और वह अन्त तक उसी पर चलते रहे थे। एक बार जब वह फ्ऱांस की यात्रा पर गए थे, तब भी वहां के गिर्जाघर (चर्च) तथा वहां की संस्कृति देख कर अत्यंत प्रभावित हुए थे। इसी लिए वह बार-बार यीशु मसीह द्वारा कही (‘जो तेरे एक गाल पर थप्पड़ मारे, उसकी ओर दूसरा भी फेर दे’) बात दोहराते थे। यह बात उन्होंने अपनी स्व-जीवनी में बड़े खुले दिल से मानी है। आज भारत में बहुत से कट्टरपंथी यीशु मसीह की इसी बात को दोहराते तो हैं, परन्तु महात्मा गांधी के नाम से; क्योंकि वे जानबूझ कर यीशु मसीह का नाम नहीं लेना चाहते क्योंकि उन्हें ऐसा करते हुए शायद शर्म आती है। कोई माने या न माने, महात्मा गांधी जी को भारत के राष्ट-पिता का दर्जा मिलने में अन्य बातों के अतिरिक्त यीशु मसीह के क्षमा करने के इस सिद्धांत का बहुत बड़ा योगदान है।
मसीही लोग समस्त भारतियों को अब तक यही नहीं समझा पाए कि हम विशुद्ध भारतीय हैं
वास्तव में यह भी हमारे मसीही समुदाय की ही कमज़ोरी है कि हम अपने भारतीय भाईयों-बहनों को अब तक यही नहीं समझा पाए कि हम भी विशुद्ध भारतीय हैं। हम दिल से यीशु मसीह को मानते हैं परन्तु हमारा अंग्रेज़ों से बिल्कुल भी कोई लेना-देना नहीं है।
यही है सच्चाई
परन्तु आज भारत में यह धारणा आम प्रचलित है कि ‘भारत में सभी ईसाईयों व गिर्जाघरों को अंग्रेज़ों की वित्तीय सहायता पहुंच रही है।’ जबकि यह बात पूर्णतया झूठ व सच से कोसों दूर है। हम यही बात कभी अच्छे ढंग से नहीं समझा पाए कि यीशु मसीह तो अंग्रेज़ नहीं थे, वह तो हमारे एशिया के निवासी थे (यदि हम भारत से पश्चिम की ओर जाएं, तो एशिया का अंतिम देश इस्रायल आता है, जहां के नगर येरूशलेम में हमारे मुक्तिदाता का जन्म हुआ था)। हम भारतीय मसीहियों ने यीशु मसीह को सन् 52 ई. में ही अपनाना प्रारंभ कर दिया था, जब संत थोमा (यीशु मसीह के शिष्य, जिन्होंने यीशु मसीह के जी उठने के बाद उनकी पसली के ज़ख़्म में अपनी उंगली डाल कर पक्का किया था कि हां, यही उनके प्रिय यीशु मसीह हैं) परन्तु पश्चिमी देशों व अंग्रेज़ों ने सन् 570 ई. के बाद कहीं जाकर यीशु मसीह को अपनाया था। हमारे भारत के लोग पहले यीशु मसीह के चरणों में पहुंच चुके थे। वास्तव में पश्चिमी देशों में तब तक कोई संगठित धर्म नहीं था। इंग्लैण्ड के लोग भी तब तक केवल अपने स्वयं के पूर्वजों की ही पूजा किया करते थे। उन्हें जब यीशु मसीह के सिद्धांतों की ख़बर मिलने लगी, तब पश्चिम के संपूर्ण देश (तत्कालीन राजाओं सहित) यीशु मसीह को अपनाने लगे। परन्तु भारत में क्योंकि हिन्दु धर्म उससे भी लगभग 3,000 वर्ष पूर्व से संगठित रूप से प्रचलित था, इसी लिए समस्त भारत ने मसीही धर्म को नहीं अपनाया।
-- -- मेहताब-उद-दीन -- [MEHTAB-UD-DIN]
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