Tuesday, 25th December, 2018 -- A CHRISTIAN FORT PRESENTATION

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कभी कोई प्रयास नहीं किया गया पंजाब के मसीही इतिहास को जानने का, यहां से जानें...



 




 


कभी किसी ने हिसाब नहीं रखा कितने मसीही जवानों ने भारतीय सेनाओं में सेवा की या बलिदान दिया

भारत के केरल, तामिल नाडू, महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल, उत्तर-पूर्वी राज्यों में मसीहियत के इतिहास संबंधी बहुत से विवरण मिलते हैं, परन्तु पंजाब के मसीही इतिहास संबंधी कोई अधिक खोज अभी तक नहीं की गई है। यहां तक कि 1857 में भारत के पहले क्रांतिकारी आन्दोलन, प्रथम विश्व युद्ध (1914-1918) व द्वितीय विश्व युद्ध (1939-1945), 1962 में चीन व फिर 1965, 1971 में पाकिस्तान के साथ भारत के विभिन्न युद्धों, पाकिस्तान के साथ कारगिल के युद्ध (मई-जुलाई 1999) व अन्य अनेक संघर्षों में कितने मसीही जवानों व अन्य मसीही लोगों ने सेवा निभाई या अपनी जानें कुर्बान कीं, इनका हिसाब-किताब रखने की हिम्मत अभी तक भी किसी मसीही माई का कोई लाल नहीं जुटा पाया है। इस ओर न कभी किसी ने सोचा न ही अब कोई सोचना चाहता है।


शहीदों को भूलने वाली कौम कभी चिरस्थायी नहीं रह पातीं

क्राईस्ट चर्च, अमृतसर

एक प्रसिद्ध कहावत है, जिसका निष्कर्ष यह निकलता है कि ‘जो कौम अपने शहीदों को भूल जाता है, वे कौमें सदा के लिए तबाह हो जाती हैं।’ हम मसीही लोगों ने कभी इस ओर ध्यान देने का कष्ट नहीं किया, यही कारण है कि अन्य कुछ मुट्ठी भर ‘राष्ट्र-विरोधी तत्त्वों’ के हौसले खुले हुए हैं तथा वे हम पर बिना वजह मौखिक व भौतिक दोनों प्रकार से आक्रमण करके देश की सांप्रदायिक एकता व अखंडता को ख़तरा बनने के बावजूद स्वयं को सब से बड़े ‘राष्ट्रवादी’ कहलाने का दावा करते रहते हैं और लोगों में राष्ट्रवादी होने के सर्टीफ़िकेट बांट रहे हैं, जब कि हम मसीही लोगों का सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक व अन्य क्षेत्रों में योगदान किसी से कम नहीं है परन्तु अभी तक क्योंकि इस दिशा में कोई काम किए ही नहीं गए, इसी लिए भारत में मसीही लोगों का योगदान पहली नज़र में नगण्य जान पड़ता है, जबकि ऐसा बिल्कुल भी नहीं है। अतः स्थानीय मसीही लोगों को अपनी-अपनी विभिन्न मिशनों के मतभेदों को त्याग कर एकजुटता से केवल भारत व भारतीयता के संदर्भ में हो ऐसी सभी बातों का आकलन अवश्य करना चाहिए और स्वयं को ‘काले अंग्रेज़’ समझना बन्द कर के ‘विशुद्ध भारतीय’ समझना चाहिए। आज समय की यही मांग है।


हम भारतियों की तरह यीशु मसीह भी एशियाई थे

यीशु मसीह एक एशियन (इस्रायल एशिया का एक देश है) थे, जैसे कि हम सभी भारतीय एशियाई हैं। यीशु मसीह का सन्देश 99 प्रतिशत पश्चिमी देशों से कम से कम तीन-चार सौ वर्ष पहले ही भारत में सन् 52 ई. में यीशु के अपने शिष्य सन्त थॉमस (थोमा) के द्वारा और उनके बाद उनके एक अन्य शिष्य नथानियेल (जिन्हें बार्थलम्यू भी कहा जाता है) पहुंच गया था। ऐसे विश्लेषण व विवेचन बहुत आवश्यक हैं और इसके लिए हमें अपने अहं व मिशनों के विभाजनों को भूल कर एकजुट होना ही होगा, वर्ना उपर्युक्त वर्णित ‘समाज विरोधी तत्त्व’ हम मसीही लोगों पर अपने आक्रमण जारी रखेंगे।


1834 से पंजाब में बढ़ने लगी मसीही समुदाय की संख्या

पंजाब (उस समय पंजाब में वर्तमान भारतीय पंजाब के अतिरिक्त पाकिस्तानी पंजाब, वर्तमान हरियाणा, हिमाचल प्रदेश भी सम्मिलित थे) का जितना भी मसीही इतिहास है, वह पादरी जॉन सी.बी. वैबस्टर, सी.एच. लोहलिन व ऐसे केवल एक-दो अन्य लेखकों की पुस्तकों व उनके विभिन्न निबंधों में ही मिल पाता है। असल अर्थों में पंजाब में मसीहियत 1834 आई थी, चाहे उससे पहले भी मसीहियत तो इस क्षेत्र में थी परन्तु उस बड़े स्तर की नहीं थी। 1834 से पहले केवल कुछेक मसीही परिवार बड़े शहरों में ही हुआ करते थे परन्तु 19वीं शताब्दी के अन्त में मसीहियत पंजाब के बहुत से गांवों में भी पहुंच गई थी। यह भी तथ्य है कि वे सभी लोग समाज में समानता प्राप्ति के उद्देश्य हेतु मसीही बने थे। परन्तु भारत के कुछ बहु-संख्यक इतिहासकारों, पत्रकारों व लेखकों ने उनके साथ भी ‘दलित क्रिस्चियन्ज़’ का टैग लगा दिया और उन्हें जानबूझ कर एक षड़यंत्र के अंतर्गत सरकार की ओर से मिलने वाली विशेष सुविधायों से वंचित करवा दिया।


वर्ष 2001 में 2.92 लाख थे भारतीय पंजाब के मसीही लोग

भारतीय पंजाब में वैसे तो प्रोटैस्टैंट मसीही लोगों की संख्या अधिक है परन्तु 1973 के बाद से केरल के कुछ कैथोलिक पादरी साहिबान तथा फिर पैन्तीकॉस्तल समुदाय के जोशीले प्रचारकों ने पंजाब की मसीहियत को अधिक विभिन्नतापूर्ण व विशिष्ट बना दिया। सन् 2001 में भारत सरकार द्वारा करवाई गई जनगणना के अनुसार पंजाब में मसीही लोगों (क्रिस्चियन्ज़) की संख्या 2 लाख 92 हज़ार 800 थी, जो 10 वर्षों के पश्चात् अर्थात 2011 में बढ़ कर 3 लाख 48 हज़ार 230 हो गई थी, जो इस भारतीय राज्य की कुल जनसंख्या का 1.26 प्रतिशत है। पंजाब के गुरदासपुर व अमृतसर ज़िलों में मसीही जनसंख्या सबसे अधिक है। इनमें से 47.2 प्रतिशत से अधिक महिलाएं हैं और 27.9 प्रतिशत मसीही लोग पंजाब के शहरों में रह रहे हैं। पढ़े लिखे मसीही लोगों की संख्या आधे से भी कम अर्थात 48.5 प्रतिशत है तथा 32.5 प्रतिशत लोग कृषि पर निर्भर हैं। इस विश्लेषण से यही जान पड़ता है कि पंजाब के नगरों में मसीही जन संख्या कम है तथा उनमें से अधिक लोग साक्षर नहीं हैं।


क्या यीशु मसीह के शिष्य सन्त थॉमस (थोमा) आए थे पंजाब?

भारत के विभिन्न मसीही समुदायों में यह लोक-कथा प्रचलित है कि यीशु मसीह के 12 शिष्यों में से एक थोमा (सन्त थॉमस) ने अपने समय में पंजाब की यात्रा भी की थी। दरअसल, यह कथा सन्त थोमा द्वरा वर्तमान पाकिस्तान व अफ़ग़ानिस्तान क्षेत्र के तत्कालीन राजा गोण्डोफ़रेस से की गई मुलाकात पर आधारित है। परन्तु उस यात्रा के बाद से पंजाब क्षेत्र में मसीही लोगों में मौजूद होने के कोई पक्के प्रमाण नहीं मिल पाए हैं। यह माना जाता है कि सन्त थोमा के मुख से यीशु मसीह की कहानी व उनके उपदेश सुन कर राजा गोण्डोफ़रेस व उनके दरबार के बहुत से लोग अपनी मर्ज़ी से सदा के लिए मसीही बन गए थे। यह माना जाता है कि उस समय यदि सन्त थोमा इस क्षेत्र में राजा गोण्डोफ़रेस से मिले थे, तो वह पंजाब क्षेत्र में भी अवश्य गए होंगे। यह बात केवल ऐसी मान्यता पर आधारित है, इस बात का कोई पक्का प्रमाण मौजूद नहीं है।


तीन पादरी साहिबान मिले थे मुग़ल सम्राट अकबर को

उत्तर भारत में मसीहियत के मौजूद होने के प्रमाण 5 मई, 1595 से तो मिलते हैं, जब तीसरी जैसुईट मसीही मिशन के तीन पादरी साहिबान उस समय के मुग़ल सम्राट अकबर को उनके लाहौर (अब पाकिस्तान में) स्थित दरबार में मिले थे। तब पादरी इमानुएल पिनहीरो ने स्थानीय लोगों में यीशु मसीह के सुसमाचार का प्रचार करने की अनुमति भी सम्राट अकबर से मांगी थी। ऐसी अनुमति उन्हें तत्काल मिल गई थी। उन जैसुइट पादरी साहिबान ने 15 सितम्बर, 1595 को पहली बार पंजाब के इस क्षेत्र में कुछ लोगों को बप्तिसमा दिया था, जिनमें कुछ स्थानीय मुस्लिम भी सम्मिलित थे, परन्तु उस समय मसीही बनने वालों में अधिक संख्या हिन्दु समुदाय के ऐसे लोगों की थी, जो उस समय बहुत अधिक आर्थिक संकट का सामना कर रहे थे। उन पादरी साहिबान ने एक स्कूल भी खोला था, जहां सम्राट अकबर के दरबार के शाही लोगों के बच्चे पुर्तगाली भाषा सीखते थे। शाही दरबार की अनुमति से ही उन्होंने लाहौर में एक चर्च का निर्माण भी करवाया था।


मुग़ल सम्राट जहांगीर व शाहजहां थे मसीहियत के विरुद्ध

परन्तु 1614 में जब अकबर के उत्तराधिकारी जहांगीर व पुर्तगालियों में युद्ध हुआ, तो लाहौर का यह चर्च ज़बरदस्ती बन्द करवा दिया गया था और मसीही क्लीसिया के ज़्यादातर लोग विस्थापित हो कर आगरा (अब उत्तर प्रदेश में) में जा कर बस गए थे। मुग़ल सम्राट शाहजहां ने 1632 ई. में लाहौर का चर्च नष्ट करने के आदेश दे दिए थे और उसके बाद फिर उसके बारे में कोई सूचना नहीं मिलती। पंजाब में 17वीं तथा 18वीं शताब्दियों में जो भी मसीही लोग थे, वे आर्मीनिया के निवासी थे और उनमें से अधिकतर सैनिक ही थे। परन्तु यह स्पष्ट नहीं है कि कोई पंजाबी भी मसीही थे या नहीं।


महाराजा रणजीत सिंह की सेनाओं में भी थे मुछ मसीही

महाराजा रणजीत सिंह की सेनाओं कुछ मसीही अवश्य थे, परन्तु वे पंजाबी नहीं, बल्कि यूरोपियन या अन्य देशों से थे। पादरी अदियोदेतस 1829 में महाराजा रणजीत सिंह के कुछ मसीही सैन्य अधिकारियों के विवाह करवाने के लिए लाहौर आए थे। तब लाहौर में 50 मसीही सैनिक थे, जो अपने परिवारों के साथ वहीं रहते थे। पादरी अदियोदेतस उन्हीं परिवारों के साथ दो वर्ष तक लाहौर में रहे थे। इस प्रकार 1830 तक पंजाब में यदि कोई मसीही लोग थे, तो वे ज़्यादातर या तो बाहर से आने वाले कोई व्यापारी हुआ करते थे या वे कोई सैनिक या सैन्य अधिकारी होते थे।


पादरी जॉन सी. लॉरी के आने के पश्चात् सक्रिय हुए पंजाब में मसीही

पंजाब में मसीहियत का विकास वास्तव में अमेरिकन प्रैसबाइटिरियन पादरी जॉन सी. लॉरी के नवम्बर 1834 में लुधियाना में आने से ही होना प्रारंभ हुआ। पंजाब में भारत के अन्य क्षेत्रों की तरह कहीं पर ब्राह्मण समुदाय का बोलबाला नहीं था और न ही तब कोई मसीही मिशन उस समय इस क्षेत्र में सक्रिय थी। दरअसल, लुधियाना में एक ब्रिटिश राजनीतिक एजेन्ट कैप्टन वेड ने पहले अपना एक स्कूल खोला हुआ था। उन्होंने पादरी लॉरी को आकर उस स्कूल का संचालन संभालने की पेशकश दी थी। पादरी लॉरी पंजाब में केवल 14 माह रह पाए थे। उस समय के दौरान कोई नया मसीही नहीं बना था परन्तु उन्होंने एक ऐसी नींव रख दी थी कि अन्य मसीही लोगों को यह ज्ञात हो गया था कि आगे क्या किया जाना चाहिए। जनवरी 1836 में जब वह गए, तो उनके स्थान पर दो मसीही मिशनरी दंपत्ति आ गए थे। पादरी लॉरी अमेरिका वापिस जाते समय एक अन्य समूह से भी मिले थे।


पंजाब के लुधियाना नगर से बढ़ने लगा मसीहियत का काफ़िला

लुधियाना में 30 अप्रैल, 1837 को सब से पहले तीन व्यक्ति स्वेच्छापूर्वक मसीही बने थे, जिनमें से दो बंगाली तथा एक रोमन कैथोलिक परिवार का एंग्लो-इण्डियन था। उन्हें इसी दिन बप्तिसमा दिया गया था। स्थानीय पंजाबी लोग बाद में मसीही बनना प्रारंभ हुए। पादरी जॉन सी. लॉरी के उत्तराधिकारियों ने लुधियाना के अतिरिक्त जालन्धर, अम्बाला, लाहौर, होशियारपुर, फ़िरोज़पुर तथा मोगा में अपने मसीही केन्द्र स्थापित किए थे। उसके बाद चर्च ऑफ़ इंग्लैण्ड के प्रचार विंग ‘चर्च मिशनरी सोसायटी’ (जिसकी स्थापना 1799 में इंग्लैण्ड में हुई थी) के प्रचारक ही 1852 में पंजाब आए थे। उस समय वर्तमान हिमाचल प्रदेश में भी मसीही केन्द्र स्थापित किए थे, जो उस क्षेत्र में तायनात कुछ ब्रिटिश सिविल व सैन्य अधिकारियों के कहने पर किए गए थे। इस ‘चर्च मिशनरी सोसायटी’ के पहले मिशनरी रॉबर्ट क्लार्क 1852 में पहली बार अमृतसर आए थे और सोसायटी का मुख्यालय भी अमृतसर में ही बना। उसके बाद इस सोसायटी ने जण्डियाला, बटाला, तरन तारन (जो अब भारतीय पंजाब में हैं) तथा पेशावर व नारोवाल (अब पाकिस्तान में) भी अपने मसीही केन्द्र स्थापित किए। इसी सोसायटी ने पश्चिमी पंजाब में बहुत से मसीही गांव व नहरी कालोनियां बसाईं।


बहुत सी विदेशी मिशनें आईं पंजाब

उसके बाद तीसरी मसीही मिशन जो पंजाब मे 1855 में आई, वह थी ‘ऐसोसिएट रीफ़ार्मड प्रैसबाइटिरियन सिनोड ऑफ़ नॉर्थ अमेरिका’, जिस ने 1858 में ऐसोसिएट रीफ़ार्मड प्रैसबाइटिरियन चर्च के साथ मिल कर ‘युनाईटिड प्रैसबाइटिरियन चर्च ऑफ़ नॉर्थ अमेरिका’ की स्थापना की थी।

तो ‘ऐसोसिएट रीफ़ार्मड प्रैसबाइटिरियन सिनोड ऑफ़ नॉर्थ अमेरिका’ के पहले मिशनरी 1855 में स्यालकोट पहुंचे थे। वहीं से गुजरांवाला, पसरूर, रावलपिण्डी जेहलम (अब पाकिस्तान में) तथा पठानकोट, ज़फ़रवाल (अब भारतीय पंजाब में) में मसीहियत पहुंची। अंत में चर्च ऑफ़ स्कॉटलैण्ड की मिशन 1856 के अंत में स्यालकोट पहुंची थी। परन्तु उस समय जो भी पहुंचे, वे सभी 1857 में भारत के पहले क्रांतिकारी आन्दोलन में मारे गए थे।

चर्च मिशनरी सोसायटी की पंजाब मिशन के प्रचारकों के प्रभाव से ही उत्तर प्रदेश के कानपुर व बनारस नगरों में बड़ी संख्या में लोगों ने अपनी इच्छा से मसीहियत को ग्रहण किया था। चर्च ऑफ़ स्कॉटलैण्ड को पहली बार किसी ने 1855 में पंजाब में जाकर प्रचार करने का परामर्श दिया था। तब तक केवल तीन मसीही मिशनें ही पंजाब में सक्रिय थीं, वह भी कुछ हद तक। फिर 19वीं शताब्दी के अन्त तथा 20वीं शताब्दी में बहुत सी मसीही मिशनें पंजाब आईं, जैसे; साल्वेशन आर्मी, दि सैवन्थ डेअ एडवैन्टिस्ट्स, पैन्तीकौस्तल चर्च, अमैरिकन मैथोडिस्ट्स, ज़नाना बाईबल एण्ड मैडिकल मिशन्ज़ (जिस में केवल महिलाओं को ही मसीही पचारकों के तौर पर भेजा जाता है), चर्च ऑफ़ इंग्लैण्ड की ज़नाना मिशनरी सोसायटी (जिस की शुरुआत 1870 ई. में हुई)।


पहले रोमन कैथोलिक मसीही मिशनरी आम लोगों में जाकर प्रार्थना नहीं करते थे

पहले रोमन कैथोलिक मसीही मिशनरी स्वयं को भारत में रहने वाले केवल ब्रिटिश सेना के यूरोपियन, एंग्लो-इण्डियन तथा अन्य रोमन कैथोलिक मसीही अधिकारियों व सैनिकों तथा उनके परिवारों में ही प्राथनाएं किया करते थे परन्तु बाद में उन्होंने स्थानीय पंजाबी लोगों में भी जाना प्रारंभ कर दिया था। 1886 में पुर्तगाली पैडरोआडो के साथ एक लिखित समझौते के बाद रोम के ‘सैकर्ड कॉन्ग्रीगेशन फ़ॉर दि प्रोपेगेशन ऑफ़ दि फ़ेथ’ ने लाहौर डायोसीज़ की स्थापना की थी और अपना पहला बिशप वहां पर नियुक्त किया था। तब कुछ नाराज़ प्रोटैस्टैन्ट मसीही लोगों ने एक पादरी साहिब से बात करके रोमन कैथोलिक बनने की इच्छा प्रकट की। उन्हें कुछ विशेष निर्देशों के पश्चात् अनुमति तो मिल गई परन्तु वे सभी शीघ्र ही वापिस प्रोटैस्टैन्ट चर्च में ही चले गए क्योंकि उन्हें तब रोमन कैथोलिक समुदाय में वह कुछ नहीं मिल पाया था, जो वे चाहते थे। परन्तु रोमन कैथोलिक पादरी साहिबान ने पंजाबियों में अपनी प्रार्थना-सभाओं का सिलसिला जारी रखा। 1931 तक पंजाब में विद्यमान मसीही समुदाय में से 11.6 प्रतिशत संख्या रोमन कैथोलिक मसीही लोगों की हो चुकी थी।


1947 में भारत के स्वाधीन होने पर चर्च भी हुए स्वायत्तत

फिर भारत के स्वतंत्र होने के पश्चात् जो सभी चर्च विदेशी मिशनों व विदेशी पादरी साहिबान के अधीन थे, वे सभी भारतीय मसीही लीडरशिप के पास आ गए। कुछ चर्चों में तो यह प्रक्रिया 1947-1948 में तत्काल हो गई, परन्तु कुछ में यह धीरे-धीरे हुई। फिर भारतीय चर्च धीरे-धीरे पाकिस्तानी गिर्जाघरों से अलग होने लगे, क्लीसियाओं में भी ऐसे ही हुआ। पंजाब के कैथोलिक चर्च में भी ऐसे ही हुआ; पहले जहां-जहां विदेशी बिशप या पादरी साहिबान थे, वहां पर बड़ी संख्या में केरल के पादरी व नन्ज़ नियुक्त कर दिए गए। 1973 में जालन्धर डायोसीज़ की स्थापना बिशप सिम्फ़ोरियन कीपरथ ने की थी। उसके बाद बहुत से प्रोटैस्टन्ट मसीही लोग रोमन कैथोलिक मिशन में आने लगे। दक्षिण भारत के मसीही प्रचारकों ने भी बड़ी संख्या में पंजाब का रुख़ किया। उन्होंने भी बहुत से नए गिर्जाघरों की स्थापना की। यह सभी विशुद्ध पंजाबी चर्च थे और इन्हें किन्हीं विदेशी मिशनों का समर्थन प्राप्त नहीं था।

इस समय पंजाब में रोमन कैथोलिक चर्च, चर्च ऑफ़ नॉर्थ इण्डिया (सी.एन.आई - जो प्रैसबाइटिरियन, चर्च ऑफ़ स्कॉटलैण्ड तथा सी.एम.एस. मिशनों के एकीकरण से अस्तित्व में आया था) तथा साल्वेशन आर्मी सबसे अधिक सक्रिय हैं। परन्तु बहुत से मसीही अब स्वतंत्र पैन्तीकॉस्तल गिर्जाघरों के साथ भी जुड़ते जा रहे हैं।


Mehtab-Ud-Din


-- -- मेहताब-उद-दीन

-- [MEHTAB-UD-DIN]



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