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भारत का मसीही इतिहास (एक नज़र में - संक्षिप्त)



 




 


सन् 52 ई.

यीशु मसीह के 12 शिष्यों में से एक थोमा (जिन्हें आज सन्त या सेंट थॉमस भी कहा जाता है) पहली बार भारत पहुंचे थे। वह वर्तमान केरल राज्य में उस समय की प्रसिद्ध बन्द्ररगाह कोडुन्गलूर पर उतरे थे।


सन् 53 ई.

सन् 53 से लेकर सन् 100 तक के बीच किसी समय यीशु मसीह के एक अन्य शिष्य नथानिएल (जिन्हें बार्थलम्यु भी कहा जाता है) भी भारत आए थे। वह बम्बई (अब मुंबई) के कल्याण क्षेत्र में रुके थे।


सन् 189 ई.

पैन्टेनस नामक एक मसीही मिशनरी मिस्र के बन्दरगाह नगर अलैक्सांद्रिया से भारत पहुंचे थे।


सन् 200 ई.

एडीसा (ऊपरी मैसोपोटामिया का एक नगर) के सीरियन मसीही लोगों के ऐतिहासिक वृतांत में पहली बार वर्णन किया गया था कि भारत में भी मसीही लोगों का एक चर्च मौजूद है। सन् 345 पर्सिया (वर्तमान ईरान) में जब मसीही लोगों का बड़े स्तर पर कत्लेआम किया जा रहा था, तब काना (गलील) नगर के मसीही श्री थॉमस के नेतृत्त्व में 400 मसीही शरणार्थी भारत के मालाबार तट (मालाबार क्षेत्र अब करनाटक एवं केरल राज्यों में है) पहुंचे थे।


सन् 883 ई.

871 ई. से लेकर 899 ई. तक इंग्लैण्ड के महाराजा रहे एल्फ्ऱैड ने एंग्लो-सैक्सन्ज़ बिशप साहिबान को भारत के तामिल नाडू के मद्रास (अब चेन्नई) में माइलापोर में स्थित सन्त थोमा (थॉमस) की कब्र के दर्शन करने के लिए भेजा था।


1293 ई.

इटली के व्यापारी व समस्त संसार की समुद्री यात्राएं करने के लिए प्रसिद्ध हुए मार्को पोलो कोरोमण्डल तट (वर्तमान आंध्र प्रदेश व तामिल नाडू के तट) पर पहुंचे थे। उन्होंने सेंट थॉमस की कब्र को मसीही लोगों के लिए एक तीर्थ-स्थल करार दिया था और वह तब इसी वर्ष कुइलोन (अब कोल्लम, जो केरल में है) के बहुत से मसीही व यहूदी लोगों से भी मिले थे।


1502 ई.

पुर्तगाल के खोजी यात्री वास्को डी गामा, जो यूरोप से भारत पहुंचने वाले पहले यूरोपियन भी थे। वह पहली बार 20 मई, 1498 को केरल के कोज़ीकोड (जिसे तब कालीकट कहा जाता था) के समीप कप्पाड़ू बन्दरगाह पर उतरे थे। 1502 में भारत के सीरियन मसीही लोगों ने वास्को डी गामा से मदद मांगी थी कि वह मुस्लिम आक्रमणकारियों से उनकी रक्षा करें।


1542 ई.

सेंट फ्ऱांसिस ज़ेवियर (जो जैसुइट मिशनरी थे) तथा उनके दो तामिल सहायकों ने कोरोमण्डल तट पर रहने वाले मछुआरों के पारावार समुदायों को यीशु मसीह का सुसमाचार सुनाया था, परमेश्वर से प्रार्थना करने का ढंग सिखलाया था तथा उन्हें दस हुक्मों संबंधी ज्ञान दिया था। उन्होंने इस वर्ष एक ही माह में 10,000 से भी अधिक पारावार लोगों को मसीही बनाया था। ये सभी लोग अपनी मर्ज़ी से मसीही बने थे, सेंट ज़ेवियर ने उन पर किसी प्रकार का कोई दबाव आदि नहीं डाला था।


1606 ई.

रॉबर्टो डी नोबिली ने जैसुइट मदुराई मिशन में अपने 50 वर्ष के मसीही मिशनरी के कैरियर की शुरुआत की थी। उन्होंने ब्राह्मण संस्कृति की बहुत सी बातों को अपनाते हुए मसीही प्रचार किया था, जिसके कारण उनका प्रभाव स्थानीय लोगों पर बहुत अधिक पड़ा था। वह तामिल के उच्च स्तरीय विद्वान व कवि भी बने।


सन् 1622 ई.

‘कॉन्ग्रीगेशियो डी प्रोपेगण्डा फ़ाईड’ की स्थापना की गई थी, जिसके अंतर्गत दक्षिण भारत के पुर्तगाली पैड्रोआडो अधिकार-क्षेत्र से बाहर भी भारत के अन्य क्षेत्रों में भी मसीही मिशनरी भेजने का निर्णय लिया गया।


सन् 1653 ई.

केरल के कुछ थॉमस मसीही लोगों ने कूनान क्रॉस नामक स्थान पर रोमन कैथोलिक शासकों के विरुद्ध विद्रोह की घोषणा करते हुए सदा स्वतंत्र रहने की शपथ ली थी। सन् 1706 ई. जर्मनी के पादरी बार्थलोमीयस ज़ीजेनबाल्ग एवं हीनरिच प्लूटशो तामिल नाडू के नगर त्रानक्युबार (अब तरंगमबाड़ी) पहुंचे थे और वहां पर एक प्रिन्टिंग प्रैस लगाई थी तथा एक चैरिटी स्कूल की स्थापना की थी।


सन् 1710 ई.

जैसुइट मिशनरी कौनस्टैन्ज़ो गिऊसेप बेसकी ने तामिल विद्वान के तौर पर अपने एक शानदार कैरियर की शुरुआत की।


सन् 1733 ई.

आरोन तंजावूर के पहले तामिल इवैन्जलीकल पादरी बने।


सन् 1750 ई.

सी.एफ़ शवार्ज़ ने अपना कैरियर एक प्रख्यात मसीही मिशनरी, विद्वान, कूटनीतिक व पथ-प्रदर्शक के तौर पर तिरुनेलवेली (तामिल नाडू) प्रारंभ किया था।


सन् 1773 ई.

इंग्लैण्ड की व्यापारिक ईस्ट इण्डिया कंपनी ने इस वर्ष कलकत्ता में अपनी राजधानी बाकायदा स्थापित की थी और भारत में औपचारिक रूप से कंपनी राज की स्थापना हुई थी।


सन 1792 ई.

प्रख्यात मसीही मिशनरी विलियम केरी ने ‘ओबलीगेशन्ज़ ऑफ़ क्रिस्चियन्ज़’ लिख कर समस्त विश्व के मसीही विश्व में एक हलचल मचा दी थी। उनका मानना था कि पवित्र बाईबल की इंजील ‘मत्ती’ के 28वें अध्याय की 18 से 20 आयत में यीशु मसीह ने जो भी कहा था, केवल अपने शिष्यों अर्थात अपने प्रेरितों को ऐसा करने के लिए कहा था। उनका कहना था कि आम मसीही मिशनरी ऐसा कर पाएं, यह हर बार संभव नहीं है।


सन 1799 ई.

विलियम केरी, जोशुआ मार्शमैन एवं डेविड वार्ड ने कलकत्ता के समीप सीरामपुर मिशन की स्थापना की।


सन 1813 ई.

अमेरिकन मिशनरियों (ए.बी.सी.एफ़.एम.) ने मार्था मिशन की स्थापना की और फिर उसके बाद अन्य बहुत सी नई मिशनों ने जन्म लिया।


सन 1833 ई.

इंग्लैण्ड की सरकार ने इस वर्ष चार्टनर रीन्युवल अधिनियम बनाया, जिससे मसीही मिशनरी स्वतंत्रतापूर्वक भारत में आकर अपना प्रचार कर सकते थे।


सन् 1834 ई.

अमेरिका के प्रैसबाइटिरियन चर्च ने पंजाब में मसीही मिशनरी कार्य प्रारंभ किए थिा एक मज़बूत शैक्षणिक प्रणाली का निर्माण किया।


सन् 1838 ई.

पोप ग्रैगरी-16वें द्वारा जैसुइट मसीही व्यवस्था को बहाल किया गया था और उस व्यवस्था के मिशनरी 64 वर्षों के अन्तराल के पश्चात् इसी वर्ष मदुराई (तामिल नाडू) पहुंचे थे।


सन् 1841 ई.

इंग्लैण्ड के वैल्श प्रैसबाइटिरियन मसीही मिशनरियों के प्रचार व प्रभाव से खासी के पहाड़ी क्षेत्रों (अब मेघालय) में रहने वाले 95 प्रतिशत से भी अधिक लोग मसीही बन गए थे।


सन् 1844 ई.

पांडीचेरी के पहले सिनोड (क्लीसिया का भारी समूह) में कैथोलिक मसीही समुदाय में सुधारों की घोषणा की गई


सन् 1848 ई.

बनारस (अब वाराणसी, उत्तर प्रदेश) के एक प्रसिद्ध ब्राह्मण परिवार के श्री नेहेमिया (नीलकंठ) गोरेह (1825-1895) बाकायदा एंग्लिकन पादरी बने थे। एक बेहद अमीर चित्तपावन ब्राह्मण परिवार से संबंधित श्री नीलकंठ अपने समय में इस लिए चर्चित रहे थे क्योंकि वह बहुत शिक्षित थे तथा पहले मसीहियत का सार्वजनिक तौर पर ज़ोरदार विरोध किया करते थे। उन दिनों बनारस की गलियों में प्रायः मसीही मिशनरी आम लोगों से बातें करते हुए अवश्य मिल जाया करते थे और श्री नीलकंठ ने संकल्प लिया था कि वह सभी विदेशी पादरी साहिबान को बनारस से निकाल कर दम लेंगे। 1846 तक वह विलियम केअ व डॉ. पूसी जैसे अंग्रेज़ मसीही विद्वानों के साथ विचार-विमर्श करने के उपरान्त काफ़ी हद तक शांत हो चुके थे, क्योंकि उनके मन के अधिकतर आध्यात्मिक प्रश्नों के उत्तर उन्हें मिल गए थे। उन्होंने 14 मार्च, 1848 को जब अपने पारिवारिक सदस्यों के विरुद्ध जाकर बप्तिस्मा लिया था, तो उस समय भी समस्त भारत में इसकी बहुत अधिक चर्चा हुई थी। फिर वह इंग्लैण्ड भी गए तथा लाहौर में ब्रिटिश शासकों द्वारा राजगद्दी से उतारे गए पंजाब के तत्कालीन महाराजा दलीप सिंह के अध्यापक भी रहे। वह कहा करते थे कि वह पहाड़ पर यीशु मसीह के उपदेश से बहुत अधिक प्रभावित हुए थे।


सन् 1855 ई.

इसी वर्ष त्रावनकोर (अब केरल) राज्य में दास (ग़ुलाम बना कर रखना) प्रथा ख़त्म हुई। फिर उसके बाद तो जैसे सदियों तक ग़रीबी व दासता की मार झेलते रहे उन ग़रीब परिवारों में मसीही धर्म मो अपनाने की एक होड़ सी लग गई। उस वर्ष कथित निम्न वर्गों ने बड़ी संख्या में स्वेच्छापूर्वक मसीही धर्म को अपनाया।


सन् 1857 ई.

भारत में अत्याचारी व व्यापारी अंग्रेज़ शासकों के विरुद्ध बड़े स्तर पर आम लोगों ने विद्रोह कर दिया, जिसे ‘भारतीय स्वतंत्रता का प्रथम युद्ध’ भी कहा जाता है। उस संघर्ष में अनेक विदेशी मसीही मिशनरी व अन्य विदेशियों के साथ-साथ भारत में मसीहियत को अपनाने वाले अनगिनत लोगों को ढू़ंढ-ढूंढ कर मौत के घाट उतार दिया। ऐसा उत्तर भारत में अधिक हुआ।


सन् 1866 ई.

वर्तमान हरियाणा के नगर पानीपत में स्थित व अपने समय के प्रसिद्ध मुस्लिम विद्वान मौलवी इमाद-उद-दीन लहीज़, जिन्होंने कुरआन शरीफ़ का उर्दू में अनुवाद भी किया था और मसीहियत के विरुद्ध बहुत खुल कर भाषण दिया करते थे और लिखा भी करते थे, ने 29 अप्रैल, 1866 को अपने सभी नज़दीकी रिश्तेदारों के साथ सदा के लिए मसीहियत व यीशु मसीह को अपना लिया था। इससे पहले उन्होंने बहुत समय तक मसीही विद्वानों के साथ बहस की थी और फिर इस आशा के साथ रूचेक्ष्छा से मसीही धर्म को अपनाया था कि अब उन्हें मुक्ति मिल जाएगी। उनके मसीही बनने पर भी देश में काफ़ी चर्चा हुई थी।


सन् 1876 ई.

नागा मसीही समुदाय ने इसी वर्ष एक विशेष गांव की स्थापना की, जहां पर अमेरिकन मिशनरी पवित्र बाईबल का अनुवाद स्थानीय भाषाओं में कर सकते थे तथा नागालैण्ड के क्षेत्रों में नए स्कूल खोलने की योजनाएं बना सकते थे। इस गांव की स्थापना के पश्चात् उस क्षेत्र में ऐसी लहर चली कि नागालैण्ड के 95 प्रतिशत से अधिक लोग मसीही बन गए।


सन् 1886 ई.

अपने समय की प्रख्यात मसीही प्रचारक श्रीमति प्रण्डिता रमाबाई ने अमेरिका की अपना बहुचर्चित यात्रा की और समस्त संसार को भारत में महिलाओं व आम लोगों की दशा से अवगत करवाया। चाहे वह सब असलियत थी परन्तु भारत के कुछ लोग उनसे नाराज़ हो गए। और फिर स्वामी विवेकानन्द जैसी शख़्सियत को भी 1893 में विश्व की पहली धार्मिक संसद में जाकर स्पष्टीकरण देना पड़ा।


सन् 1886 ई.

भारत में कैथोलिक हायरआर्की (अनुक्रम या पद अनुसार दर्जे) स्थपित हुए।


सन् 1888 ई.

मार थोमा इवैन्जलिस्टक ऐसोसिएशन की स्थापना हुई, जिसके अंतर्गत मसीही मिशनरियों ने कुछ ग़रीब व दलित लोगों तक अपनी पहुंच बनाई तथा भारत में ‘मसीही आश्रम’ स्थापित किए जाने की परंपरा प्रारंभ हुई।


1888-89 ई.

जर्मन मसीही मिशनरियों के नेतृत्त्व में सैल्वाडोर के कुछ लोग खासी के पहाड़ी क्षेत्र (अब उत्तर-पूर्वी भारत के राज्य मेघालय में) पहुंचे थे। उनके प्रभाव से बहुत से लोग पहली बार स्वेचपूर्वक मसीहियत को अपनाने लगे थे।


1891 ई.

प्रख्यात स्वतंत्रा सेनानी, पत्रकार ब्रह्मबन्धव उपाध्याय ने एंग्लिकन पादरी साहिबान से कलकत्ता में बप्तिस्मा लिया। वह बाद में कैथोलिक चर्च से जुड़ गए।


1894 ई.

एक प्रसिद्ध मसीही कवि एच.ए. कृष्णा पिल्ले ने अंग्रेज़ी के प्रसिद्ध साहित्यकार जॉन बन्यान की पुस्तक ‘पिलर्गिम’स प्रोग्रैस’ (तीर्थ-यात्री की प्रगति) का तामिल भाषा में अनुवाद किया, जो बहुत अधिक चर्चित हुआ।


1894 ई.

श्री लंका के नगर कैण्डी में ‘नैश्नल पेपल सैमिनरी’ की स्थापना हुई, जो 1950 में भारत के वर्तमान महाराष्ट्र राज्य के पुणे नगर में हस्तांत्रित कर दी गई थी। वास्तव में यह भारत के कैथोलिक चर्च में पादरी या बिशप साहिबान के पदों के अनुक्रम (हायरआर्की) का भारतीयकरण ही था।


1895 ई.

प्रसिद्ध मराठी मसीही कवि नारायण वामन तिलक (1862-1919), जो एक ब्राह्मण परिवार से संबंधित थे परन्तु उन्होंने यीशु मसीह को स्वेच्छापूर्वक सदा के लिए ग्रहण कर लिया था, ने अपनी हिन्दु विरास्त के आधार पर यीशु मसीह के प्रति पूर्ण श्रद्धा-भावना रखते हुए मराठी भाषा में अनेक मसीही गीत लिखे, जो आज भी महाराष्ट्र के बहुत से गिर्जाघरों में गाए जाते हैं। उन दिनों में तथा बाद के समय में भी ऐसे बहुत से पादरी व प्रचारक हुए, जिन्होंने हिन्दू व मसीही सिद्धांतों में कई समानतायें प्रस्तुत करते हुए प्रचार किया और ऐसे भारत में सांप्रदायिक एकता कायम करने के भी प्रयत्न किए।


1899 ई.

भारत के वर्तमान मिज़ोरम राज्य के क्षेत्र में मसीही मिशनरी चाहे 1894 में ही आ गए थे, परन्तु उसके पाचं वर्षों के बाद पहली बार इसी वर्ष दो मीज़ो नागरिक अपनी मर्ज़ी से मसीही बने थे। यहां पर नोट करने वाली बात यह है कि उस समय भारत पर इंग्लैण्ड का राज्य था और पादरी साहिबान या मसीही प्रचारकों को कोई रोकने वाला भी नहीं था क्योंकि भारत में धार्मिक प्रचार करने की अनुमति तो बहुत पहले ही मिल चुकी थी। परन्तु मसीही सिद्धांत किन्हीं अन्य धर्मों की तरह ऐसी कोई अनुमति नहीं देता कि किसी का ज़बरदस्ती या कोई लालच देकर धर्म परिवर्तन करके उसे मसीही बनाया जाए। यीशु मसीह का एक भी उपदेश ऐसा करने के लिए नहीं कहता। इस लिए आज के कुछ मुट्ठी भर तथाकथित राजनीतिज्ञों द्वारा केवल अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने हेतु मसीही पादरी साहिबान या मिशनिरयों पर आम लोगों के धर्म-परिवर्तन करने के आरोप लगाए जाते हैं। आज मिज़ोरम की जनसंख्या 11 लाख के करीब है और उनमें से 87 प्रतिशत लोग मसीही हैं तथा उनके पूर्वजों ने अपनी मर्ज़ी से ही यीशु मसीह को सदा के लिए अपनाया था।


1904 ई.

साधु सुन्दर सिंह को यीशु मसीह दिखाई दिए और उसके पश्चात् वह अपने सिक्ख धर्म को त्याग कर सदा के लिए मसीही साधु बन गए।


1905 ई.

पुणे (महाराष्ट्र) में पण्डिता रमाबाई के मुक्ति मिशन स्कूल में जब प्रार्थना हो रही थी, और रमाबाई पवित्र बाईबल में से ‘यूहन्ना’ की इंजील का 8वां अध्याय पढ़ रही थीं, तो अचानक जैसे पवित्र आत्मा एक तेज़ रौशनी के रूप में वहां पर उतरी और वहां पर बैठे सैंकड़ों लोग एक अजीब आनन्द से भरपूर हो गए। इस घटना के बाद पण्डिता रमाबाई की मुक्ति मिशन की ओर समस्त विश्व का ध्यान गया। इस घटना को ‘होली स्पिरिट रीवाईवल’ (पवित्र आत्मा पुनर्जीवन) भी कहते हैं।


1905-06 ई.

मेघालय के खासी पहाड़ी क्षेत्र में 8,000 लोगों ने अपनी मर्ज़ी से यीशु मसीह को सदा के लिए ग्रहण किया।


1910 ई.

पहली विश्व मिशनरी कान्फ्ऱेंस इंग्लैण्ड के एडिनबरा में हुई।


1912 ई.

वी.एस. अज़रियाह पहले भारतीय एंग्लिकन बिशप बने। वर्तमान तेलंगाना के नगर डॉर्नाकल में बिशप अज़रियाह ने आंध्र प्रदेश क्षेत्र के 2 लाख से अधिक लोगों को मसीही धर्म ग्रहण करने के लिए प्रेरित किया था। स्वेच्छापूर्वक यीशु मसीह को सदा के लिए ग्रहण करने वाले उन लोगों में से अधिकतर लोग माला एवं मैडिगा जाति से संबंधित थे। बाद में बिश्प अज़रियाह ने महात्मा गांधी जी के साथ स्वतंत्रता संग्राम के आन्दोलनों में भी भाग लिया था। परन्तु जब गांधी जी को ख़बर मिली थी कि बिशप अज़रियाह बड़े स्तर पर लोगों का धर्म-परिवर्तित करके उन्हें मसीही बना रहे हैं, तो गांधी जी बिशप से नाराज़ भी हो गए थे। 1904 ई. बिशप तिबरतियस रौश, ‘लैटिन राईट’ डायोसीज़ के पहले भारतीय मुख्य बने। उनकी नियुक्ति तामिल नाडू में हुई थी।


1927 ई.

ऐमी कारमाईकल ने इस वर्ष तामिल नाडू के नगर दोहनावूर में एक मसीही फ़ैलोशिप स्थापित की। उसकी सहायता से उन्होंने ऐसी अनेक लड़कियों व महिलाओं को बचाया, जिन्हें दक्षिण भारत के मन्दिरों में ‘देवदासी’ के नाम पर ज़बरदस्ती वेश्या बनने पर विवश किया जाता था। ऐमी कारमाईकल के सामाजिक कार्यों को महात्मा गांधी ने भी बहुत सराहा।


1947 ई.

भारत को स्वतंत्रता प्राप्त हुई। एक नया देश पाकिस्तान बना ओर उसके अगले ही वर्ष अर्थात 1948 में बर्मा (अब म्यांमार) व सिलौन (अब श्री लंका) को भी अंग्रेज़ों की ग़ुलामी से आज़ादी मिल गई। 1947 में देश के साथ-साथ समस्त भारत के चर्च भी स्वतंत्र हो कर विशुद्ध भारतीय बन गए। गिर्जाघरों की कमाण्ड भारतीय मसीही समुदाय के हाथों में आ गई।


1947 ई.

चर्च ऑफ़ साऊथ इण्डिया (सी.एस.आई.) की स्थापना भूतपूर्व एंग्लिकन, कॉन्ग्रीकेशनलिस्ट्स, रीफ़ॉमर्ड चर्च एवं मैथोडिस्ट जैसी मिशनों के चर्च के एकजुट होने से हुई। सी.एन.आई (चर्च ऑफ़ नॉर्थ इण्डिया) की स्थापना उसके बाद हुई थी।


1951 ई.

मदर टैरेसा (एग्नेस गोंगज़ा बोजैक्सियु) ने कलकत्ता (अब कोलकाता) में ‘कैथोलिक मिशनरीज़ ऑफ़ चैरिटी’ की स्थापना की।


1960 ई.

1960 के दशक में कुछ बहु-संख्यक तत्त्वों ने मसीही धर्म-परिवर्तन के विरुद्ध आवाज़ उठानी प्रारंभ की थी।


1961 ई.

तीसरे विश्व के देशों के गिर्जाघरों की काऊँसिल का एक समारोह नई दिल्ली में हुआ और वहीं पर ‘वर्ल्ड काऊँसिल ऑफ़ चर्चेज़’ की स्थापना हुई, जिसका मुख्यालय जनेवा में स्थित है।


1977 ई.

भारतीय सर्वोच्च न्यायालय (सुप्रीम कोर्ट) ने मसीही प्रचारकों के कार्य को ‘ज़मीर की आज़ादी’ (जो भारत के लोगों को संविधान द्वारा दी गई है) को ख़तरा बताया।


2002 ई.

तामिल नाडू सरकार ने एक ऑडीनैंस पारित करते हुए ज़बरदस्ती धर्म-परिवर्तन पर प्रतिबन्ध लगाया।


 

नोटः-

रॉबर्ट ऐरिक फ्ऱाईकनबर्ग के संकलन से साभार प्रेरित, (जो https://christianhistoryinstitute.org/magazine/article/christianity-in-india पर प्रकाशित है) परन्तु इस में आवश्यकतानुसार वर्द्धन किया गया है।


Mehtab-Ud-Din


-- -- मेहताब-उद-दीन

-- [MEHTAB-UD-DIN]



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