आखिर भारत में कयों प्रफुलित नहीं हो पाई मसीहियत? भारत का कुछ और मसीही इतिहास
ऐसे हुई भारत के पहले प्रैसबाइटिरियन चर्च की स्थापना
1836 में पांच और मसीही मिशनरी दंपत्ति भारत पहुंचे और उन्होंने सहारनपुर, अलाहाबाद (उत्तर प्रदेश) व स्पाटू (वर्तमान हिमाचल प्रदेश) में नए मसीही केन्द्र स्थापित किए। 17 दिसम्बर, 1836 को छः मसीही मिशनरी दंपत्तियों ने सहारनपुर में एकत्र हो कर उत्तर भारत के पहले प्रैसबाइटिरियन चर्च की स्थापना की, जिसका संचालन अमेरिकन प्रैसबाइटिरियन चर्च के पास था। 1837 में उन्होंने इसे भारत में बाकायदा प्रैसबाइटिरियन मसीही मिशन के रूप में स्थापित किया गया। इसी प्रैसबाइटिरियन चर्च क्लीसिया ने बाद में 1924 में युनाईटिड चर्च इन नॉदर्न इण्डिया (यू.सी.एन.आई.) की स्थापना की और 1970 वही सी.एन.आई. चर्च बना।
समस्त भारत में चर्च का हुआ पासार
इससे पहले 1840 में कुछ अन्य मिशनरियों ने फ़र्रुख़ाबाद व फ़तेहगढ़ में भी मसीही केन्द्र स्थापित किए। 1852 में अमेरिकन बोर्ड के अंतर्गत कार्य करते हुए पादरी रॉयल वाइल्डर व उनकी पत्नी ने बम्बई महानगर के दक्षिण में कोल्हापुर में एक मिशन केन्द्र की स्थापना की थी। इस प्रकार 1870 तक कोल्हापुर में अमेरिकन प्रैसबाइटिरियन चर्च की तीसरा स्थायी मसीही मिशन केन्द्र स्थापित हो चुका था। 8 अगस्त, 1855 को पादरी एण्ड्रयू गौर्डन ने स्यालकोट (अब पाकिस्तान के पंजाब में) एक मसीही केन्द्र स्थापित किया था। 1891 में रावलपिण्डी (अब पाकिस्तान में) स्थित मसीही मिशनरी केन्द्र को भी स्यालकोट ट्रांसफ़र कर दिया गया था।
भारत में विदेशी मसीही मिशनों का कुछ और रेकार्ड
1913 में इण्डिया काऊँसिल की स्थापना होने से पूर्व तक तीनों मिशनें - लुधियाना स्थित पंजाब मिशन, फ़र्रुख़ाबाद मिशन एवं कोल्हापुर स्थित पश्चिमी भारत की मिशन के रूप में स्वतंत्र रूप से कार्य करती रही थीं और न्यू यार्क (अमेरिका) स्थित फ़ॉरेन बोर्ड सीधे उनका संचालन करता था। बाद में कुछ अन्य अमेरिकन मसीही मिशनरियों ने मसूरी (अब उत्तराखण्ड में) में वुडस्टॉक स्कूल के समीप तथा दक्षिण भारत में कोडाइकनाल (तामिल नाडू) में मसीही केन्द्र स्थापित किए। इन तीनों मिशनों हेतु काम करने के लिए 100 वर्षों में 704 मिशनरी अमेरिका से भारत आए थे। उनमें से 112 ने प्रथम विश्व युद्ध (1914-1918) से पहले भारत में मसीही सेवा निभाई थी।
1849 में शेरे-पंजाब महाराजा रणजीत सिंह के सिक्ख राज्य एवं अंग्रेज़ (ब्रिटिश) साम्राज्य के बीच युद्ध छिड़ने के बाद पंजाब एक हो कर काफ़ी बड़ा बन गया था। 1857 में जब भारतीय सेनाओं के सिपाहियों व सैनिकों ने विद्रोह कर दिया था, तब बड़ी संख्या में मसीही मिशनरी मारे गए थे।
फ़र्रुख़ाबाद में हुआ एक प्रैसबाइटिरियन मसीही केन्द्र स्थापित
अमेरिका के मसीही मिशनरी श्री जेम्स पी. आल्टर, जिन्होंने 1979 से लेकर 1983 तक भारत में भी काम किया, ने फ़र्रुख़ाबाद (उत्तर प्रदेश) में प्रैसबाइटिरियन मसीही समुदाय के बारे में काफ़ी जानकारी लिखित रूप में दी है। उनके पुत्र श्री जॉन आल्टर भी येल डिविनिटी स्कूल में प्रशिक्षित एक मिशनरी/पादरी हैं। इन मिशनरी पिता-पुत्र की जानकारी के अनुसार मार्च 1836 में जॉन लॉरी (जो भारत आने वाले पहले प्रैसबाइटिरियन मसीही मिशनरी थे) ने न्यू यार्क स्थित ‘बोर्ड आूफ़ फ़ॉरेन मिशन्ज़’ को लिखित रूप से सुझाव दिया कि गंगा व यमुना के बीच के क्षेत्र फ़र्रुख़ाबाद में भी एक मसीही केन्द्र अवश्य स्थापित होना चाहिए। परन्तु उन दिनों भारत पर शासन करने वाली इंग्लैण्ड की व्यापारिक ईस्ट इण्डिया कंपनी कलकत्ता से दिल्ली तक रेल की पटरी बिछाने की परियोजना पर विचार कर रही थी (कलकत्ता से दिल्ली तक की पहली रेलगाड़ी 1866 में चली थी)। फ़र्रुख़ाबाद क्योंकि इस सैक्शन पर नहीं आता था, इसी लिए कंपनी के अंग्रेज़ अधिकारी फ़र्रुख़ाबाद को कोई अधिक महत्त्व वाला केन्द्र नहीं मानते थे। परन्तु पादरी लॉरी के सुझाव को क्रियान्वित करते हुए फ़र्रुख़ाबाद में एक प्रैसबाइटिरियन मसीही केन्द्र स्थापित कर दिया गया। फ़र्रुख़ाबाद के पास रक्खा नामक गांव में एक यतीमखाना खोला गया पर यह सब 1857 के ग़दर के समय बर्बाद कर दिया गया था व सब कुछ लूट लिया गया था। परन्तु उसके बाद फ़र्रुख़ाबाद केन्द्र के द्वारा ही अलाहाबाद, फ़तेहपुर, इटावा, मैनपुरी, रखा एवं फ़र्रुख़ाबाद जैसे नगरों में बड़े चर्च स्थपित किए गए थे।
विदेशी मसीही मिशनरियों ने इंग्लैण्ड के शासकों के विरुद्ध जाकर भारत में लिए थे निर्णय
यहां यह बात भी वर्णनीय है कि भारत पर ईस्ट इण्डिया कंपनी के 1757 से 1858 तक एवं इंग्लैण्ड की महारानी के 1858 से लेकर 1947 तक के राज्य के दौरान का समय कोई अधिक अच्छा नहीं रहा था। भारत के लोग कभी दिल से अंग्रेज़ों को अपना नहीं मान सके थे क्योंकि उनका रवैया भारतीयों के प्रति अपमानपूर्ण ही रहा। दरअसल वे भारतियों को अपना दास बना कर ही रखना चाहते थे। ये तो विदेशी मसीही मिशनरी ही थे, जिन्होंने इंग्लैण्ड के शासकों के विरुद्ध जाकर भारत में अपने अनेक शैक्षणिक संस्थान व अस्पताल खोले। उनसे भारत के स्थानीय लोगों को बहुत अधिक लाभ पहुंचा परन्तु अंग्रेज़ शासकों के अत्याचारों व पक्षपातपूर्ण नीतियों के कारण आम जनता कभी मिशनरियों के भले कार्यों को भी खुल कर अच्छा न कह सकी। यही स्थिति आज भी कायम है।
अंग्रेज़ शासकों के अत्याचारों के कारण भारत में प्रफ़ुलित न हो पाई मसीहियत
हम कई बार यह बात कह चुके हैं कि यदि कहीं अंग्रेज़ों का राज्य भारत पर न रहा होता या अंग्रेज़ सचमुच यीशु मसीह के सच्चे सिद्धांतों पर चले होते, तो आज भारत में मसीही समुदाय की संख्या 2 प्रतिशत नहीं, बल्कि (शायद) 50 प्रतिशत से भी अधिक होती। क्योंकि सही अर्थों में भारत को आधुनिक युग की ओर मसीही मिशनरियों ने ही मोड़ा था। आधुनिक शिक्षा भी वही पहली बार भारत लेकर आए। आधुनिक अंग्रेज़ी शिक्षा के कारण ही स्वामी विवेकानन्द अमेरिकी राज्य इलिनोयस के महानगर शिकागो में 11 से 27 सितम्बर, 1893 तक आयोजित पहली विश्व धार्मिक संसद में अच्छे ढंग से बोल पाए और समस्त विश्व को भारत के फ़लसफ़े के बारे में मालूम हो सका।
-- -- मेहताब-उद-दीन -- [MEHTAB-UD-DIN]
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