आख़िर पंजाब में मसीहियत पहली बार कब और कैसे आई व कौन लाया? भारत का कुछ और मसीही इतिहास
पादरी जॉन सी. लॉरी ने लुधियाना में किया था पहला विदेशी मसीही स्टेशन स्थापित
बंगलौर स्थित युनाईटिड थ्योलोजिकल कॉलेज में ‘मसीही इतिहास’ के प्रोफ़ैसर रह चुके डॉ. जौन सी.बी. वैबस्टर (जो पिछले कुछ समय तक अमेरिकन राज्य कुनैक्टीकट के नगर वाटरफ़ोर्ड स्थित युनाईटिड प्रैसबाईटिरियन चर्च के पादरी रह चुके हैं), ने पंजाब के मसीही इतिहास का वर्णन करते हुए लिखा है कि 5 नवम्बर, 1834 को पादरी जॉन सी. लॉरी ने लुधियाना में पहला विदेशी मसीही मिशन स्टेशन स्थापित किया था और यही मिशन अब अमेरिका में प्रैसबाइटिरियन चर्च का संचालन करती है। इस प्रकार पहली बार 1834 में पंजाब का संपर्क विदेशी प्रैसबाइटिरियन मसीही मिशन से जुड़ा। तब पंजाब आज का छुटका पंजाब नहीं था, बल्कि इसमें वर्तमान पाकिस्तान का अधिकांश भाग, वर्तमान हरियाणा, हिमाचल जैसे राज्य भी शामिल थे। वैसे पादरी विलियम रीड ने भी पंजाब में मसीहियत को फैलाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।
क्या प्रेरित थोमा भी आए थे पंजाब?
डॉ. वैबस्टर के अनुसार कुछ विद्वान ऐसा भी मानते हैं कि सन् 52 ईसवी के पश्चात् (अर्थात वर्ष 2020 से 1968 वर्ष पहले) पंजाब क्षेत्र में हमारे उद्धारकर्ता यीशु मसीह का सन्देश पहली बार स्वयं यीशु मसीह के 12 शिष्यों में से एक सन्त थोमा (सेंट थॉमस - वही शिष्य थोमा, जिन्होंने यीशु के मुर्दों में से जी उठने के पश्चात् उनकी पसली के घाव में अपनी उंगली डाल कर तसल्ली की थी कि हां यीशु सचमुच जीवित प्रभु परमेश्वर ही हैं) लेकर आए थे। परन्तु इस बात के कोई पक्के प्रमाण मौजूद नहीं हैं कि पंजाब में यीशु मसीह का सन्देश पहली बार सन्त थोमा ही लेकर आए थे। इस बात के प्रमाण अवश्य विद्यमान हैं कि भारत में जब मुग़लों का राज्य था, तब पंजाब में जैसुईट मसीही मिशनरी सक्रिय थे।
अमेरिका से भारत के लिए चार जन चले पर जॉन सी लॉरी रह गए अकेले
बाद में जॉन सी लॉरी जैसे मिशनरियों ने पंजाब में मसीहियत को समृद्ध करने के प्रयत्न किए। पादरी लॉरी पंजाब में आने वाले कोई पहले विदेशी मसीही मिशनरी भी नहीं थे। दो मसीही मिशनरी पादरी जॉन सी. लॉरी, उनकी पत्नी लुइसा विल्सन लॉरी तथा विलियम रीड एवं उनकी पत्नी हैरियट वैल्स रीड 30 मई, 1833 को अमेरिकन राज्य पैनसिल्वेनिया के नगर फ़िलाडेल्फ़िया से भारत के लिए चले थे और उसी वर्ष 15 अक्तूबर को कलकत्ता बन्दरगाह पर पहुंचे थे। परन्तु जब वे बन्दरगाह पर उतरे थे, तो वे चार नहीं बल्कि केवल तीन जन थे क्योंकि पादरी विलियम रीड का निधन रास्ते में ही हो गया था और इसी लिए उनकी पत्नी हैरियट भी तत्काल अमेरिका लौट गईं थीं। शायद पादरी लॉरी की पत्नी लुइसा को भी भारत का जलवायु कुछ रास नहीं आया था और वह शीघ्र ही बीमार पड़ गईं और नवम्बर 1833 को चल बसीं।
पादरी जॉन सी. लॉरी को पंजाब से शीघ्र ही लौटना पड़ा
अतः पादरी जॉन सी. लॉरी अकेले ही 1834 में लुधियाना पहुंचे थे। फिर 1835 में दो और मिशनरी दंपत्ति पंजाब आ गए थे। इसी बीच पादरी लॉरी की तबियत कुछ बिगड़ गई और वह जनवरी 1836 को अमेरिका लौट गए और अमेरिका के ‘बोर्ड ऑफ़ फ़ॉरेन मिशन्ज़’ के सचिव (सैक्रेटरी) नियुक्त हुए और 92 वर्ष की आयु अर्थात सन् 1900 में उनका निधन हुआ।
पादरी गोपी नाथ नंदी भारत के पहले ऐसे नागरिक थे, जो अमेरिकन प्रैसबाइटिरियन मसीही मिशन के पादरी बने थे। वह 1848 में जालन्धर चर्च के पादरी बने थे।
पादरी जॉन न्यूटन ने किया बाईबल का पंजाबी अनुवाद, अंगेज़ी से पंजाबी डिक्शनरी व पंजाबी व्याकरण भी लिखी
पादरी जॉन न्यूटन अपनी पत्नी एलिज़ाबैथ पी. जैन्वियर न्यूटन के साथ नवम्बर 1834 में अमेरिका से रवाना हुए थे। उन्होंने पंजाब में मिशनरी कार्य किया। पादरी न्यूटन ही ऐसे पहले प्रैसबाइटिरियन मिशनरी थे, जिन्होंने भारतीय भाषाओं में पवित्र बाईबल का अनुवाद किया था। वह अपने साथ एक छोटी सी प्रिंटिंग प्रैस लेकर आए थे, ताकि वह धार्मिक साहित्य प्रकाशित कर सकें। उन्होंने पंजाबी में न केवल पवित्र बाईबल के नए नियम का अनुवाद किया, बल्कि अंग्रेज़ी से पंजाबी का एक शब्दकोश व एक पंजाबी व्याकरण भी लिखी। वह जितना अच्छा अंग्रेज़ी में बोलते थे, उतना ही बढ़िया वह पंजााबी भाषा भी लिख, बोल व समझ सकते थे। उन्होंने ही 1850 में चर्च ऑफ़ इंग्लैण्ड मिशन को पंजाब आने का निमंत्रण दिया था। उनके कारण ही अमेरिकन मसीही मिशनों एवं चर्च ऑफ़ इंग्लैण्ड के बीच संबंध बहुत अच्छे रह पाए थे। उनकी पत्नी एलिज़ाबैथ का निधन भारत आने के कुछ समय बाद ही 2 सितम्बर, 1857 को हो गया था। फिर 1866 में उन्होंने एलिज़ा हॉर्नबकल से दूसरा विवाह रचाया था जो उनके निधन अर्थात 4 दिसम्बर, 1893 तक उनके साथ रहीं।
पंजाबी डिक्शनरी व व्याकरण लिखने वाले पादरी लेवी जान्वियर की हुई थी हत्या
पादरी रीसे मौरिस ने 1837 से लेकर 1845 तक लाहौर में न्यूटन की प्रिंटिंग प्रैस हेतु प्रिंटर के तौर पर कार्य किया। उन्हें 1845 में अपने ख़राब स्वास्थ्य के कारण अमेरिका लौटना पड़ा था। पादरी जोसेफ़ वारेन ने पहले 1833 से लेकर 1854 तक अपनी पत्नी के साथ तथा फिर 1877 में अपने देहांत तक अलाहाबाद में सेवा निभाई। अलाहाबाद में उन्होंने एक प्रिंटिंग प्रैस की शुरुआत भी की थी। 1854 में वह अमेरिका लौट गए थे तो उनकी पत्नी का निधन हो गया था। फिर उन्होंने मेरी पौटर नामक महिला से विवाह रचाया। मेरी पौटर 1904 में अपने निधन तक अलाहाबाद में ही रहीं। जूलिया ए. डेविस नवम्बर 1834 में भारत आईं थीं और अगले ही वर्ष अमेरिका लौट गईं थीं। पादरी जेम्स आर. कैम्पबैल ने अपनी पत्नी के साथ 1836 से लेकर 1862 तक सहारनपुर (उत्तर प्रदेश) में सेवा निभाई। उनकी पत्नी 1874 तक सेवा करती रहीं। अमेरिकन प्रैसबाइटिरियन मिशनरियों के इस क्रम में पादरी जॉन एच. मौरिसन ने 1837 से लेकर 1881 तक लुधियाना में धार्मिक सेवा की। पहली पत्नी ऐना वार्ड 1838 में अपने निधन तक उनके साथ रहीं, दूसरी पत्नी ईसाबेला हेअ ने उनके साथ अपने निधन 1843 तक, तीसरी पत्नी ऐना विलियम्ज़ ने अपने निधन 1860 तक तथा चौथी पत्नी एलिज़ाबैथ रॉयटर ने 1888 तक लुधियाना में मिशनरी कार्य किया।
पादरी लेवी जान्वियर ने 1841 से 1864 तक लाहौर में सेवा निभाई। उनकी पहली पत्नी का साथ 1854 तक रहा। दूसरी पत्नी मेरी आर. प्रवीन (जो पादरी जोसेफ़ पोर्टर की विधवा थीं) ने 1851 से लेकर 1875 तक लाहौर चर्च में सेवा की। पादरी जान्वियर ने अपने भतीजे जॉन न्यूटन के साथ पंजाबी का एक शब्दकोश तथा एक व्याकरण तैयार किया। उन्होंने अनेक पैम्फ़लैट्स व पुस्तिकायें उर्दू व हिन्दी में भी प्रकाशित कीं। 1864 में एक कट्टर सिक्ख ने उनकी हत्या कर दी थी।
लुधियाना की मसीही मिशन ने स्थापित किए शैक्षणिक संस्थान
19वीं शताब्दी में पंजाब की लुधियाना स्थित प्रैसबाइटिरियन मसीही मिशन तथा स्यालकोट की प्रैसबाइटिरियन मसीही मिशन का आधार चाहे तब एक ही था अर्थात उनका मुख्यालय न्यूयार्क, अमेरिका था परन्तु उनके बीच एक बुनियादी फ़र्क भी था। लुधियाना की मसीही मिशन ने अपना ध्यान शैक्षणिक संस्थानों को स्थापित करने पर लगाया और 19वीं शताब्दी के अन्त में ही शहरों व गांवों के बहुत से दलित लोगों ने मसीहियत को अपना लिया था, जबकि स्यालकोट के प्रैसबाइटिरियन मसीही मिशनरियों ने हमारे उद्धारकर्ता यीशु मसीह का सन्देश गांवों में जा कर पहुंचाने पर अधिक बल दिया। दरअसल, स्यालकोट मिशन को उन समयों में काफ़ी समय तक आर्थिक समस्याओं का सामना करना पड़ा था, शायद इस लिए उन्होंने ऐसा किया हो।
जब पंजाब के सभी चर्च एकजुट हो गए थे
भारतीय पंजाब के सभी प्रैसबाइटिरियन चर्च तो पहले एंग्लिकन चर्च के साथ 1956 में यू.सी.एन.आई. तथा फिर 1970 में सी.एन.आई. के एक बैनर तले एकजुट हो गए थे परन्तु पाकिस्तानी प्रैसबाइटिरियन चर्च को 1961 में जाकर कहीं स्वायत्तता (ऑटोनॉमी) मिली परन्तु वह अपने देश के अन्य चर्चों के साथ अभी तब एकजुट नहीं हो पाया है।
1966 में जब भारत में पंजाब राज्य की स्थापना हुई, तो उसी वर्ष डॉ. सी.एच. लोहलिन के नेतृत्त्व में ‘क्रिस्चियन इनस्टीच्यूट ऑफ़ सिक्ख स्टडीज़’ नामक संस्था की स्थापना की गई थी। पंजाब के मसीही लोगों ने सदा अन्य धर्मों के साथ मिल कर सांप्रदयिक एकता का प्रदर्शन करने को ही प्राथमिकता दी है।
मसीही मिशनों को क्यों मिला था दलितों का समर्थन?
उधर एटाह एवं फ़र्रुख़ाबाद स्थित मसीही मिशनों को भी उन दलित लोगों से बहुत अधिक समर्थन मिला था, जिन्हें पीढ़ी-दर-पीढ़ी कई शताब्दियों तक भारत के बहु-संख्यक व तथाकथित उच्च जातियों के लोगों ने दबा कर रखा था - उन पर सदा अत्याचार ही ढाहे थे (यदि कोई दलित व्यक्ति कभी भूले से पवित्र रामायण या श्रीमद भगवदगीता का पाठ सुन भी लेता था, तो उसके कानों में सिक्का अर्थात सीसा घोल कर डाल कर उसे सदा के लिए बहरा कर दिया जाता था कि वह अब कभी पवित्र ग्रन्थों को सुन न पाए), उन्हें सदा छोटे-छोटे कामों के लिए केवल मज़दूरों की तरह रखा, उन्हें व उनके बच्चों को कभी पढ़ने नहीं दिया और उन पर प्राचीन ग्रन्थों के हवाले से वर्ण व जाति प्रथाओं के आधार पर उन्हें ‘निम्न जातियां या वर्ग’ करार दिया था।
स्यालकोट में पंजाबी प्रैसबाइटिरियन मसीही चर्च की स्थापना
श्री विल्बर सी. क्रिस्टी, जो स्वयं 1938 से लेकर 1977 में अपनी सेवा-निवृत्ति तक स्यालकोट (जो अब पाकिस्तानी पंजाब में है) मिशन के सदस्य रहे तथा उन्होंने गुजरांवाला स्थित मसीही सैमिनरी के प्रिंसीपल की हैसियत से भी काम किया, स्यालकोट में पंजाबी प्रैसबाइटिरियन मसीही चर्च की स्थापना संबंधी वर्णन करते हुए बताते हैं कि फ़रवरी 1855 में सब से पहले एण्ड्रयू गौर्डन नामक मसीही मिशनरी अमेरिका से भारत के इस क्षेत्र अर्थात स्यालकोट में पहुंचे थे। उन्हें पंजाब के लाहौर के उत्तर की ओर जाने की सलाह दी गई थी। उन्होंने ही स्यालकोट की पंजाब मिशन की स्थापना की थी तथा लुधियाना में पादरी जॉन सी. लॉरी के नेतृत्त्व में पहले 1834 में ही प्रैसबाइटिरियन चर्च ने काम करना प्रारंभ कर ही दिया था।
विदेशी नहीं, अपितु देशी था पंजाब का चर्च
पादरी गौर्डन ने वास्तव में पंजाब में एक पश्चिमी परंपरा वाला चर्च नहीं, अपितु ‘देसी’ चर्च स्थापित करने के प्रयत्न अधिक किए। उन्होंने पहले काफ़ी समय तो स्यालकोट शहर की क्लीसिया को एकत्र किया तथा फिर 18 दिसम्बर, 1856 को पहली बार वे सभी एक स्थान पर एकत्र हुए। तब उनकी संख्या केवल 11 थी; उनमें भी तीन मिशनरी थे, जिनमें दो भारतीय प्रचारक व उनके परिवार सम्मिलित थे। इस चर्च का संचालन उत्तरी अमेरिका की ‘ऐसोसिएट प्रैसबाइटिरियन सिनोड’ के पास ही रहा। 27 सितम्बर, 1857 को पहली बार ‘उच्च’ हिन्दु जाति के एक शिक्षित व्यक्ति राम भजन, एक अन्य जौहरी व एक असिक्षित सफ़ाई सेवक के साथ-साथ एक अच्छे घराने के एक मुस्लिम ने अपनी इच्छा से यीशु मसीह को सदा के लिए ग्रहण किया तथा उन्हें बप्तिस्मा दिया गया। परन्तु यहां पर अत्यधिक प्रयत्नों के बाद मसीही मिशनिरयों को कोई ख़ास सफ़लता न मिल पाई।
वंचित वर्ग अधिक आया मसीहियत में
1866 में ज़फ़रवाल क्षेत्र में जुलाहा जाति ‘मेग’ के बहुत से सदस्यों ने मसीहियत को अपनाया। परन्तु 1873 में इस क्षेत्र के दलित वर्ग (जो अधिकतर सफ़ाई सेवक ही थे) ने बड़े स्तर पर अपनी मर्ज़ी से यीशु मसीह को अपना उद्धारकर्ता मानना प्रारंभ किया। फिर आगामी 30-40 वर्षों तक हिन्दु धर्म को मानने वाले वे वर्ग मसीहियत को अपनाते रहे, जिन्हें सदियों तक ब्राह्मणों व क्षत्रियों के वर्गों ने अपने दास बना कर उन्हें बहुत से बुनियादी मानवीय अधिकारों से वंचित कर रखा था। ऐसी स्थिति उस समय भारत के बहुत से स्थानों पर थी। तब मसीहियत को अपनाने वाले वे लोग बहुत ग़रीब थे, उन्होंने इस लिए यीशु मसीह को अपना मुक्तिदाता नहीं माना था कि उन्हें अंग्रेज़ या विदेशी मसीही मिशनरियों से कोई वित्तीय या आर्थिक लालच हुआ करता था, बल्कि अधिकतर वही लोग उस समय इस लिए मसीहियत को अपना रहे थे क्योंकि उन्हें भारत के तथाकथित उच्च व स्वर्ण जातियों ने कई शताब्दियों से दबा कर रखा था। वे लोग इस लिए अनपढ़ थे क्योंकि उच्च वर्ग उन्हें पढ़ने ही नहीं देता था और उस समय केवल हिन्दु ही नहीं, बल्कि सिक्ख व मुस्लिम लोग भी उन्हें समाज में घृणा की नज़र से ही देखते थे। दलितों को विवश हो कर अपने घर के ख़र्चे चलाने के लिए मैला ढोने जैसे मलिन काम करने पड़ते थे।
चर्च में रही दलित वर्ग के सदस्यों की संख्या अधिक
दलित वर्ग के लोगों की अधिक संख्या का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि 1958 में पाकिस्तानी पंजाब की सयालकोट मिशन से संबंधित क्लीसियों के सदस्यों की संख्या 1 लाख 38 हज़ार 226 थी, जिनमें से 134 संगठित मसीही क्लीसियाओं के 53,000 सदस्य पहले दलित वर्ग से संबंधित हुआ करते थे। और तो और उनमें से 152 विधिवत पादरी एवं प्रचारक भी नियुक्त हुए थे। आज वे लोग मसीहियत के कारण ही सम्मानीय जीवन व्यतीत कर रहे हैं। यदि वे यीशु मसीह को ग्रहण न करते, तो आज भी उनकी स्थिति शायद दयनीय होती। मसीही मिशन ने अपने स्यालकोट क्षेत्र में कुछ शैक्षणिक संस्थान भी खोले। अप्रैल 1877 में स्यालकोट में एक मसीही सैमिनरी (धार्मिक शिक्षा देने वाला स्कूल) खोली गई - जे.एस. बार उसके सीनियर प्रोफ़ैसर बने, एण्ड्रयू गौर्डन एवं जी.एल. ठाकुर सहायक प्रौफ़ैसर नियुक्त हुए। तब केवल 9 विद्यार्थी वहां पर थे। फिर बाद में यह सैमिनरी स्यालकोट से गुजरांवाला में चली गई और ‘गुजरांवाला थ्योलोजिकल सैमिनरी’ के नाम से स्थापित हुई। 1954 में यह पाकिस्तान का एक केन्द्रीय मसीही संस्थान बन गया। 1954 से लेकर 1977 तक 259 विद्यार्थी मसीही शिक्षा ले चुके थे और उनमें से आधे युनाईटिड प्रैसबाइटिरियन चर्च से संबंधित थे।
11 अप्रैल, 1961 को यह चर्च अमेरिकी अधिकारियों से स्वतंत्र हो कर ‘युनाईटिड प्रैसबाइटिरियन चर्च ऑफ़ पाकिस्तान’ बन गया।
स्यालकोट में खोला ‘क्रिस्चियन ट्रेनिंग इनस्टीच्यूट’
1881 में स्यालकोट के बड़ा पत्थर क्षेत्र में एक और प्रकार का मसीही लीडरशिप प्रशिक्षण संस्थान ‘क्रिस्चियन ट्रेनिंग इनस्टीच्यूट’ खोला गया था, जो बाद में सी.टी.आई के नाम से भी जाना गया। यहां पर केवल पादरी या प्रचारक बनाने के लिए ही प्रशिक्षण नहीं दिया जाता था, अपितु कुछ ऐसे स्वंय-सेवक (वालन्टियर) भी वहां पर तैयार होते थे, जिनकी आवश्यकता प्रायः चर्च के अन्दर या बाहर की अनेक गतिविधियों में पड़ती रहती है। सी.टी.आई. के साथ बड़ी संख्या में मसीही लोग जुड़े, जो स्यालकोट मिशन हेतु दूर-दूर तक कार्यरत थे। इसका प्रारंभ 1881 में केवल 11 विद्यार्थियों से हुआ था, परन्तु 1892 में इसके विद्यार्थियों की संख्या 102 तथा 1916 में 275 हो गई, जिनमें 12 महिलाएं व 48 ग़ैर-मसीही प्रशिक्षु भी थे। यहां पर तब केवल 8वीं कक्षा तक की पढ़ाई करवाई जाती थी तथा उर्दू यहां का माध्यम था। बाद में यहां पर अंग्रेज़ी भाषा भी पढ़ाई गई और फिर यह एंग्लो-वर्नैकुलर स्कूल न गया। 1972 में पाकिस्तान के अन्य निजी स्कूलों की तरह यह भी सरकारी नियंत्रण के अधीन आ गया। परन्तु युनाईटिड प्रैसबाइटिरियन शैक्षणिक बोर्ड ने इसके होस्टल (छात्रावास) पर अपना नियंत्रण बना कर रखा। प्रैसबाइटिरियन मसीही मिशनरियों ने अधिकतर प्राईमरी स्कूलों में पढ़ाया। ऐसे अधिकतर स्कूल 1880 के दश्क के दौरान सबसे अधिक खुले ताकि उस समय दौरान दलित वर्ग से आकर मसीही बनने वाले परिवारों के बच्चे व अन्य लोग सही प्रकार की आधुनिक शिक्षा ग्रहण कर सकें। उन्होंने अपने क्षेत्र के लगभग प्रत्येक गांव में एक स्कूल खोला, जहां मसीही बच्चों का दाख़िला निश्चित हुआ करता था।
मुस्लिम मौलवी भी पढ़ाते रहे स्यालकोट के मसीही संस्थान में
उस समय की एक बहुत दिलचस्प बात यह भी है कि उन स्कूलों के लिए अधिकतर योग्य अध्यापक शीघ्रतया कहीं मिल नहीं पाते थे, इसी लिए उन स्कूलों में कुछ स्थानीय मुस्लिम मौलवी भी कुछ अधिक आय अर्जित करने के लिए अध्यापक के तौर पर नियुक्त हो जाते थे। वे बच्चों को न केवल उर्दू, अरबी या फ़ारसी पढ़ाते थे, बल्कि वे यीशु मसीह से संबंधित व पवित्र बाईबल में दर्ज बहुत सी कहानियां भी बच्चों को सुनाते थे और बाईबल से संबंधित कुछ प्रश्न भी स्पष्ट करते थे। उनका वेतन कुछ समय बाद तभी मिलता था, जब मसीही मिशनरी वहां पर आते थे और अपनी निगरानी में बच्चों की परीक्षा लेते थे। उन मौलवी साहिबान को उतना ही वेतन मिला करता था, जितने बच्चे ऐसी परीक्षाओं में उतीर्ण हुआ करते थे।
ऐसे स्थापित होते रहे मसीही स्कूल
1940 तक मसीही मिशन की ‘ग्रामीण शिक्षा समिति’ के ऐसे 70 स्कूल गांवों में चल रहे थे और उनमें 95 प्रतिशत अध्यापक मसीही ही हुआ करते थे। पहले डॉ. आर.ए. फ़ौस्टर सी.टी.आई. के प्रिंसीपल हुआ करते थे और इन गांवों के स्कूलों का प्रबन्ध भी वही देखते थे। उनके बाद श्री लाल मोती लाल प्रिंसीपल बने थे तो ये सभी कार्य वह करने लगे थे। उनके उद्यमों से ही ये स्कूल उस स्तर पर पहुंच पाए कि सरकार ने बाकायदा उनकी जांच के बाद उनमें से 28 स्कूलों को मान्यता दे दी थी और फिर उन स्कूलों के ख़र्चे की एक-तिहाई या एक-चौथाई आर्थिक सहायता सरकार से भी आने लगी। अंततः 1972 तक ऐसे सभी स्कूलों का राष्ट्रीयकरण कर दिया गया और केवल कुछ ऐसे स्कूल ही युनाईटिड प्रैसबाइटिरियन ऐजूकेशनल बोर्ड के अधीन रह गए, जिन्हें सरकार ने मान्यता नहीं दी थी।
स्यालकोट क्षेत्र में मसीही चर्च ने न केवल स्कूल खोले, बल्कि उसने इसी क्षेत्र के हाजीपुर नगर में लड़कियों के लिए एक विशेष बोर्डिंग स्कूल भी 1857 में खोला था। इसमें पहली बार 22 यतीम लड़कियों को रखा गया था; इस प्रकार यह स्कूल कम यतीमखाना अधिक था परन्तु ऐसा सब तत्कालीन सरकार की सलाह से ही किया गया था। चालीस वर्षों के बाद अर्थात 1897 में यहां पर लड़कियों की संख्या 85 हो गई थी तथा अंग्रेज़ी की पढ़ाई चौथी कक्षा से करवाई जाती थी। 1927 में यहां पर अध्यापकों को ट्रेनिंग देने का काम भी शुरु हो गया तथा इस स्कूल की पहली राष्ट्रीय मुख्य-अध्यापिका मिस नोरा बशीर-उद-दीन बनीं। फिर 1948 में यह हाई स्कूल बन गया और 1963 तक इसमें विद्यार्थियों की संख्या चार सौ के लगभग हो गई तथा अध्यापकों का प्रशिक्षण जारी रहा। 1972 में इस स्कूल का भी राष्ट्रीयकरण हो गया परन्तु होस्टल का नियंत्रण अन्य मसीही स्कूलों की तरह मसीही मिशन के पास ही रहा। सरकार ने यहां पर एक मुस्लिम प्रिंसीपल नियुक्त कर दिया। उसके बाद यह विवाद उत्पन्न होने लगा कि यह संपत्ति क्या युनाईटिड प्रैसबाइटिरियन चर्च की है या सरकार की।
पठानकोट का मसीही स्कूल
भारत का विभाजन होने अर्थात 1947 तक देश में लड़कियों के लिए युनाईटिड प्रैसबाइटिरियन मिशन का एकमात्र स्कूल पठानकोट (पंजाब) में ही स्थित था, जिसे मिस मेरी जेन कैम्पबैल ने 1887 में स्थापित किया था। विभाजन के उपरान्त पाकिस्तान की मसीही लड़कियों के लिए पठानकोट जाना असंभव हो गया था, क्योंकि पठानकोट भारतीय क्षेत्र में आ गया था। मिस वीडा जे. ग्राहम द्वारा तैयार किए गए आंकड़ों के अनुसार पठानकोट के इस स्कूल से 1914 से लेकर 1953 तक 342 छात्राओं ने ग्रैजुएशन की, जिनमें से 29 प्रतिशत मसीही थीं। इन मसीही ग्रैजुएट्स में से 89 अध्यापिकाएं बनीं, 6 ने सरकारी स्कूलों में इन्सपैक्टरों का कार्य भार संभाला, 5 सरकारी स्कूलों की मुख्य-अध्यापिकाएं बनीं, 15 डॉक्टर तथा 16 नर्सें बनीं। 58 छात्राओं में से 16 ने विवाह के पश्चात् भी अध्यापन का कार्य जारी रखा। पठानकोट के इस स्कूल का प्रबन्धकीय संचालन अब चर्च ऑफ़ नॉर्थ इण्डिया (सी.एन.आई.) के पास है।
पसरूर, स्यालकोट के स्कूल में नेत्रहीनों हेतु भी था शिक्षा का प्रबन्ध
पाकिस्तानी पंजाब राज्य के स्यालकोट ज़िले के नगर पसरूर में लड़कियों के बोर्डिंग स्कूल की शुरुआत वास्तव में यतीम लड़कियों के लिए एक औद्योगिक गृह के रूप में हुई थी, परन्तु 1925 में यह स्यालकोट के लड़कियों के बोर्डिंग स्कूल की एक शाखा बन गई। इस स्कूल की एक विशेषता यह भी थी कि इस में एक क्लास नेत्रहीन बच्चों के लिए भी लगती थी, जिसे एक नेत्रहीन अध्यापक ही पढ़ाया करते थे। बच्चों को वहां पर ब्रेल लिपि में पढ़ना व लिखना सिखलाया जाता था। उसी से वह गणित, सामाजिक अध्ययन व दस्तकारी जैसे विषयों के सैद्धांतिक अध्ययन करने में सक्षम हो पाते थे और फिर बाद में ऐसे विद्यार्थी अपने जीवन में अपने पैरों पर खड़े हो पाते थे। 1959 में इस स्कूल के प्रिसंीपल रहे मिस लुईसा हबीब ख़ान को उनकी उत्कृष्ट सेवाओं के लिए 1963 में पाकिस्तान सरकार ने ‘स्टार ऑफ़ पाकिस्तान’ नाम के पदक से सम्मानित भी किया था। 1972 में इस स्कूल का भी राष्ट्रीयकरण हो गया था। प्रैसबाइटिरियन मसीही मिशन ने 1915 में सांगला हिल व 1922 में सरगोधा (अब पाकिस्तान) में स्कूल खोले थे। इसके अतिरिक्त मसीही मिशन रावलपिण्डी, गुजरांवाला एवं लायलपुर में भी अपने स्कूल चलाती थी। ये सभी स्कूल 1972 में राष्ट्रीयकृत हो गए थे। 1856 में स्यालकोट की मसीही मिशन ने रावलपिण्डी में लड़कों का गौर्डन कॉलेज खोला था।
इस प्रकार पंजाब की इन मसीही मिशनों ने इन शैक्षणिक संस्थानों के द्वारा समाज में सकारात्मक योगदान डालने वाले लोगों का सृजन किया।
पंजाब में सी.एन.आई. प्रोटैस्टैन्ट चर्च, मैथोडिस्ट चर्च, प्रैसबाइटिरियन चर्च, रोमन कैथोलिक चर्च, असैम्बली ऑफ़ गॉड, इटर्नल लाईट मिशनरीज़, कश्मीर इवैंजल्किल फ़ैलोशिप, पैन्तीकॉस्तल मिशन, साल्वेशन आर्मी जैसी बहुत सी मसीही मिशनें सक्रिय हैं।
-- -- मेहताब-उद-दीन -- [MEHTAB-UD-DIN]
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