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Jesus Cross

ग़रीबों व बीमारों की सेवा करते हुए बिताया सन्त जोसेफ़ वाज़ ने अपना जीवन



 




 


‘श्री लंका के प्रेरित’ के नाम से जाना जाता है सन्त जोसेफ़ वाज़ को

सन्त जोसेफ़ वाज़ की दक्षिण भारत व श्री लंका में आज भी बहुत मान्यता है। वह एक मसीही मिशनरी और बहुत ही बढ़िया वक्ता थे। उनका जन्म 21 अप्रैल, 1651 को गोवा के बीनौलिम क्षेत्र में हुआ था परन्तु उन्होंने अधिक कार्य श्री लंका में किया, जिसे तब सिलौन कहा जाता था। वह जब सिलौन पहुंचे थे, तब वहां पर डच (जर्मनी का) राज्य था और डच शासक तब जॉन कैल्विन के मसीही सिद्धांत तेज़ी से लागू कर रहे थे। डच शासकों से पूर्व श्री लंका में पुर्तगालियों का राज्य था। जोसेफ़ वाज़ ने श्री लंका का भ्रमण कर के पहले तो परिस्थितियों की समीक्षा की और फिर जहां-जहां भी उन्हें रोमन कैथोलिक मसीही मिले, उन्होंने उन सभी से बात की और बहुत सख़्त परिश्रम के बाद ही वह श्री लंका में कैथोलिक चर्च का पुनःनिर्माण कर पाए। उनके योगदान के कारण ही उन्हें ‘एपौस्सल ऑफ़ सिलौन’ (श्री लंका का रसूल या प्रेरित) भी कहा जाता है। उन्हें 14 जनवरी, 2015 को वर्तमान पोप फ्ऱांसिस द्वारा ‘सेंट’ अर्थात ‘सन्त’ घोषित (कैननाईज़) किया गया था। उन्हें ‘सन्त’ घोषित करने की प्रक्रिया पोप जौन पौल-द्वितीय ने 21 जनवरी, 1995 को प्रारंभ की थी (बीटीफ़ाई किया था)।


लातीनी भाषा का स्कूल खोला

जोसेफ़ वाज़ के पिता क्रिस्टोवाओ वाज़ एवं माँ मारिया डी मिराण्डा थीं - वे दोनों रोमन कैथोलिक थे। जोसेफ़ वाज़ ने प्राथमिक शिक्षा सैनकोल में प्राप्त की थी। उन्होंने वहां पुर्तगाली भाषा सीखी तथा अपने ननिहाल बीनौलिम में उन्होंने लातीनी भाषा भी सीखी। 1675 में उन्हें गोवा आर्कडायोसीज़ का डीकन नियुक्त किया गया था। अगले वर्ष वह पादरी बन गए। उन्होंने मिशनरी जीवन अपनाते समय ही सभी दुनियावी सुख-सुविधायों को त्याग दिया था। उन्होंने भावी पादरी साहिबान के लिए सैनकोल में लातीनी भाषा सिखलाने हेतु एक स्कूल खोला। वह स्वयं को ‘माँ मरियम का दास’ कहा करते थे।


गोवा के मसीही गुटों के परस्पर विरोधपूर्ण संघर्ष से अत्यंत दुःखी थे जोसेफ़ वाज़

1681 में वह दक्षिण भारत के कनारा क्षेत्र के विकार फ़ोरेन बने, जहां पर तब गोवा के पैड्रोआडो का स्थानीय अधिकारियों के साथ संघर्ष चल रहा था। उन्होंने देखा कि वहां पर रोमन कैथोलिक चर्च की स्थिति अत्यंत विस्फ़ोटक बनी हुई थी और कैथोलिक समुदाय दो भागों में बंटा हुआ था। उनमें से एक कैथोलिक समूह तो गोवा के पैड्रोआडो आर्कबिशप को मान्यता देता था तथा दूसरा डी कास्ट्रो को अपना रहनुमा मानता था। दोनों ही एक-दूसरे के समुदायों को मसीहियत से निकालने की घोषणा करते रहते थे। अंततः लोगों ने इन दोनों ही समूहों का बहिष्कार करना प्रारंभ कर दिया था। पादरी जोसेफ़ वाज़ को इन बातों से बहुत तकलीफ़ हुआ करती थी। इसी लिए वह इसी मुद्दे को लेकर डी कास्ट्रो से मंगलौर में मिले भी थे।


कई गांवों में भी खोले स्कूल

पादरी जोसेफ़ वाज़ ने 1681 से लेकर 1684 में कनारा क्षेत्र मे अत्यंत गंभीर प्रकार की मिशनरी गतिविधियों में भाग लिया। वह अधिकतर मंगलौर, बसरूर, बरकूर, मूल्की, कोल्लियनपुर जैसे क्षेत्रों में सक्रिय रहे और ओनोर, बसरूर, कुन्दापुर व गंगोलिम जैसे नगरों में चर्च भी स्थापित किए। उन्होंने कुछ गांवों में स्थानीय लोगों की मदद से स्कूल भी खोले।

पादरी जोसेफ़ वाज़ ने 25 सितम्बर, 1685 को ‘ओरेटरी ऑफ़ सेंट फ़िलिप नेरी’ नामक एक नए मसीही समुदाय (मिशन) की स्थापना की और उसकी क्लीसिया को जोड़ा।


भिक्षु की वेष-भूषा में दाख़िल हुए श्री लंका में

तभी उन्हें यह सूचना मिली कि सिलौन के कैथोलिक समुदायों के पास विगत कई वर्षों से कोई पादरी नहीं है। लेकिन उन दिनों में श्री लंका पहुंचना कोई आसान बात नहीं हुआ करती थी। पादरी जोसेफ़ वाज़ अपने एक सेवक के साथ पैदल व कभी नावों में यात्राएं करते हुए बहुत मुश्किल से श्री लंका के जाफ़ना पहुंचे थे। उन दोनों ने भिक्षुओं अर्थात भारतीय सन्यासियों के वेष अपनाए हुए थे। उन्हें किसी ने भी नहीं पहचाना और सभी प्रकार की पूछताछ व तलाशियों में से वे निकल गए। उन दिनों कोई भी कैथोलिक पादरी श्री लंका में में दाख़िल नहीं हो सकता था।


रातों को घर-घर जा कर श्री लंका में कैथोलिक लोगों को इकट्ठे किया

श्री लंका पहुंच कर पादरी जोसेफ़ वाज़ ने अपने अधिकतर कार्य रात्रि के समय करने प्रारंभ कर दिए। 1689 में वह सिल्लालाई नामक एक गांव में बस गए, जहां बड़ी संख्या में कैथोलिक लोग रह रहे थे और वे सभी अपने विश्वास में पूर्णतया दृढ़ थे। 1690 में वह पुट्टालाम चले गए। फिर वह जाफ़ना चले गए। वहां पर भी कोई कैथोलिक रोज़री, सलीब या अन्य कोई कैथोलिक मसीही निशानी अपने पास नहीं रख सकता था। ऐसे में पादरी जोसेफ़ वाज़ अपने गले में एक बड़ी रोज़री डाल कर घर-घर भिक्षा मांगा करते थे। ऐसे उन्होंने घर-घर जा कर कैथोलिक लोगों की पहचान की और उन्हें इकट्ठे करना प्रारंभ कर दिया।


सिलौन के विकार जनरल हुए नियुक्त

पादरी जोसेफ़ वाज़ ने श्री लंका के अनेक नगरों में ऐसे ही मसीही प्रचार किया। उनके जीवन-वर्णन के साथ कई चमत्कारों की कथाएं भी जुड़ी हुईं हैं। श्री लंका की राजधानी कोलम्बो में भी वह सक्रिय रहे। 1697 में ओरेटरी ऑफ़ गोवा ने उनकी सहायता के लिए तीन और मिशनरी भेजे। कोचीन के बिशप पैड्रो पेशको ने उन्हें सिलौन का विकार जनरल नियुक्त कर दिया।


महामारी में की अनगिनत बीमारों की सेवा

उन्हीं दिनों श्री लंका के कुछ नगरों में छोटी चेचक (स्माल पौक्स) रोग फैल गया और तब पादरी जोसेफ़ वाज़ को बीमारों के बीच खुलेआम जाने का अवसर प्राप्त हुआ। उस रोग से तब असंख्य लोगों की मृत्यु हुई। परन्तु वह उन बीमारों में भी सेवा करते ही रहे। वह क्योंकि छूत का रोग था, इसी लिए जब घर में कोई बीमार पड़ता, तो उसके रिश्तेदार वहीं छोड़ कर कहीं और रहने के लिए चले जाते और वह अकेला वहां पर पड़ा-पड़ा मर जाता। पादरी जोसेफ़ वाज़ ने तब घर-घर जाकर अकेले पड़े ऐसे रोगियों को ढूंढा और उनका उपचार करवाया। इस कार्य में अन्य भी बहुत से रोमन कैथोलिक लोगों ने उनका साथ दिया।


बीमारों के उपचार समय छूत लगने से हुआ निधन

बीमारों का उपचार करते-करते पादरी जोसेफ़ वाज़ स्वयं बहुत अधिक बीमार पड़ गए। उन्हें बुख़ार के साथ-साथ अन्य भी बहुत सी छूतें (इनफैक्शन्ज़) हो गईं ओर 16 जनवरी, 1711 को 59 वर्ष की आयु में कैण्डी में ही उनका निधन हो गया।

श्री लंका के वेनापूवा नगर में जोसेफ़ वाज़ कॉलेज उन्हीं के नाम से है, जिसकी स्थापना जनवरी 1935 में की गई थी। कर्नाटक के मुडिपु में एक चर्च भी सन्त जोसेफ़ वाज़ को समर्पित किया गया है और ऐसा ही एक चर्च श्री लंका में भी है।


Mehtab-Ud-Din


-- -- मेहताब-उद-दीन

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