Tuesday, 25th December, 2018 -- A CHRISTIAN FORT PRESENTATION

Jesus Cross

वे सभी कारण - क्यों एक सच्चा मसीही ज़बरदस्ती कभी किसी का धर्म-परिवर्तन नहीं करवा सकता



 




 


भारत में सदैव ’बली का बकरा’ बना रहा मसीही समुदाय

भारत में मसीही समुदाय को ‘बली के बकरे’ की तरह इस्तेमाल किया जाता रहा है। प्रत्येक प्रकार की राजनीतिक लड़ाईयों में उन्हें निशाना बनाया जाता रहा है। ये सभी कांटे ईस्ट इण्डिया कंपनी के बोए हुए हैं। आम भारतीय लोगों का बस अंग्रेज़ों पर तो चलता नहीं था, इसी लिए वे नए मसीही बनने वाले निर्दोष भारतियों को ही अपना निशाना बना दिया करते थे।


सेवा - मेरी मार्सेल थेकेकारा की

मेरी मार्सेल थेकेकारा (Mari Marcel Thekaekara) विगत तीस वर्षों से तामिल नाडू, केरल एवं कर्नाटक की नीलगिरी पहाड़ियों पर रहने वाले आदिवासियों/कबाईलियों की सेवा करने में जुटी हुईं हैं तथा वह ‘एकॉर्ड’ (एक्शन फ़ार कम्युनिटी आर्गेनाईज़ेशन, रीहैबिलीटेशन एण्ड डिवैल्पमैन्ट) नामक एक संस्था (एन.जी.ओ.) चला रही हैं। उनके पति स्टैन भी इस कार्य में उनके साथ हैं। वे उन लोगों को पढ़ाने-लिखाने व उनको नए युग के जीवन की बातें सिखलाते हैं।


भारत में मसीही होने का अर्थ

Faith Baptist Church, Pinjore

फ़ेथ बैप्टिस्ट चर्च, पिंजौर

जो पादरी जॉर्ज सैमुएल विगत 38 वर्षों से अपने घर में लगाते आ रहे हैं और उन्होंने अब तक सदा निःशुल्क ही धार्मिक सेवा की है। कभी किसी से कोई देशी या विदेशी वित्तीय सहायता नहीं मिल पाई। यही कारण है कि अब तक क्लीसिया अपना कोई स्थायी चर्च भवन निर्मित नहीं करवा पाई। पादरी सैमुएल भी अभी तक किराये के मकानों में ही रहते आ रहे हैं और अपने घर में ही एक कमरे को चर्च के लिए छोड़ देते है। यदि अब तक कोई देशी या विदेशी सहायता मिल रही होती, तो आज इनकी ऐसी परिस्थिति नहीं होती, ये सभी लोग पैसों में खेल रहे होते। इसी लिए धर्म-परिवर्तन के आरोप लगाने से पूर्व पहले तथाकथित बहु-संख्यक राजनेता ऐसे गिर्जाघरों व पादरी साहिबान की उदाहरणें तो देख लें। पादरी जॉर्ज सैमुएल को फ़ेथ बैप्टिस्ट चर्च मुख्यालय (चण्डीगढ़) से केवल 2,000 रुपए मासिक वेतन मिलता है, जिससे आज उनके घर का किराया भी चुकता नहीं किया जा सकता।

मेरी मार्सेल थेकेकारा ने 27 मार्च, 2015 को दैनिक ‘दि हिन्दु’ में एक लेख लिखा था ‘बीअंग क्रिस्चियन इन इण्डिया’ (भारत में मसीही होने का अर्थ), जिसके प्रारंभ में ही उन्होंने लिखा था कि जो लोग जानबूझ कर चीख-चीख कर यह आरोप लगाते हैं कि ‘आम भारतियों के धर्म-परिवर्तन करके उन्हें मसीही बनाया जा रहा है’, उन्हें यह तथ्य ज्ञात होना चाहिए कि जब अंग्रेज़ों का राज्य भी सभी भारतीयों को मसीही नहीं बना पाया, अब तो कोई क्या किसी को मसीही बनाएगा। यीशु मसीह का सिद्धांत हिंसा एवं किसी भी प्रकार की ज़बरदस्ती का सख़्त विरोध करता है। किसी के साथ कभी कोई ज़ोर-ज़बरदस्ती की ही नहीं जा सकती।


कभी शीघ्रतया प्रतिक्रिया प्रकट नहीं करता एक सच्चा मसीही

भारतीय संविधान के निर्माता बाबा साहिब डॉ भीम राव अम्बेडकर ने भी देश के दलित भाईयों-बहनों को अपना धर्म-परिवर्तन करके उन्हें बुद्ध धर्म अपनाने को कहा था। कोई डॉ. अम्बेडकर द्वारा दिए गए ‘धर्म-परिवर्तन के इस सीधे आह्वान’ पर बहु-संख्यक तथाकथित ब्रिगेड थोड़ा सा भी शोर मचा के तो देखे। मचाएगा तो मुँह की खाएगा परन्तु वही बरसाती मेंढक के जैसा (जो बेचारा केवल एक विशेष सरकार केन्द्र में आने पर ही सक्रिय होने की हिम्मत जुटा पाता है, बाकी समय में कहीं छुपा रहता है) तथाकथित ब्रिगेड बिना वजह मसीही समुदाय के पीछे अवश्य पड़ जाता है - क्योंकि उन्हें अच्छी तरह मालूम है कि एक सच्चे मसीही लोग किसी बात पर शीघ्रतया कोई प्रतिक्रम प्रकट नहीं करते, वे केवल प्रार्थना मात्र से अपनी समस्याओं का समाधान करना चाहते हैं। यीशु मसीह का सिद्धांत ही ऐसा है - वह तो मूल रूप से यही सिखलाता है कि ‘यदि कोई तेरी एक गाल पर थप्पड़ मारे, तो दूसरी भी आगे कर दो।’


एक सच्चा मसीही व्यक्ति/संगठन कभी किसी का ज़बरदस्ती धर्म-परिवर्तन करवा ही नहीं सकता

यदि कोई किसी ग़रीब को दाल-चावल या थोड़ा पैसा देकर कोई धर्म-परिवर्तन करवाता है, तो ऐसे व्यक्ति सच्चे मन से नए धर्म को कभी नहीं अपना पाते। यदि विश्व में कोई मसीही संस्थाएं ऐसी नीतियों पर चल कर ऐसे ज़बरदस्ती धर्म-परिवर्तन करवाती हैं, तो उन्हें ऐसे कार्य तत्काल बन्द कर देेने चाहिएं। भारत में तो बात ही अलग है। जिस देश में अढ़ाई-तीन सौ वर्षों तक ब्रिटिश मसीही लोगों का पूर्णतया प्रभाव रहा हो, उस देश में केवल 2 प्रतिशत लोग मसीही हों, तो बात सभी को बड़ी आसानी से सीधे-सीधे समझ में आ सकती है कि कभी किसी के साथ ज़ोर-ज़बरदस्ती कर के उसका धर्म-परिवर्तन नहीं करवाया गया। भारतीयों ने अंग्रेज़ों की कुछ अच्छी बातों आधुनिक शिक्षा एवं अंग्रेज़ी भाषा को तो अपना लिया परन्तु उनका धर्म नहीं अपनाया। जिनको मन से अच्छा लगा, उन्होंने केवल स्वेच्छापूर्वक यीशु मसीह को सदा के लिए ग्रहण किया।


यीशु मसीह के शिष्य सन्त थोमा के प्रभाव से अधिक भारतीय बने थे मसीही

शायद अंग्रेज़ों के राज्य के दौरान उतने लोग स्वेच्छापूर्वक मसीही नहीं बने होंगे, जितने 2,000 वर्ष पूर्व यीशु मसीह के शिष्य सन्त थोमा (सेंट थॉमस) ने अपने प्यार भरे प्रवचनों से अपने गुरु यीशु मसीह का सन्देश सुना कर केवल 20 वर्षों में बना लिए थे। यदि ब्रिटिश राज में ज़बरदस्ती धर्म-परिवर्तन करवाए गए होते, तो आज भारत में मसीही लोगों की संख्या भी शायद मुस्लिम आबादी के समान अर्थात 20 करोड़ या उससे भी अधिक होती। क्योंकि अधिकतर मुस्लिम शासकों एवं अन्य आक्रमणकारियों ने भारत में अधिकतर लोगों के धर्म-परिवर्तन तलवार एवं ज़ोर-ज़बरदस्ती से ही करवाए थे।


अधिकतर मसीही देशों में बसे भारतीयों को तो कभी किसी ने ज़बरदस्ती मसीही नहीं बनाया

इसके अतिरिक्त वर्तमान विश्व में करोड़ों भारतीय विदेशों में बसे हुए हैं और उनमें से अधिकतर देश मसीही बहुसंख्या वाले हैं। कोई उनसे पूछ कर देखे कि वहां उन्हें मसीही धर्म या यीशु मसीह को अपनाने हेतु कितना विवश किया जाता है या कितनी ज़ोर-ज़बरदस्ती की जाती है। यदि कोई भारतीय कभी विदेश में जा कर मसीही बना भी होगा, तो वह केवल स्वेच्छा से ही बना होगा। यदि किसी दूसरे देश में धर्म-परिवर्तन के लिए ज़ोर-ज़बरदस्ती हो रही होती, तो कभी कोई भारतीय उधर का रुख़ न करता। आज हालात यह हैं कि लगभग प्रत्येक दूसरा या कहीं तीसरा भारतीय विदेश जाने को तरस रहा है। वहां पर निश्चित तौर पर भारत से बेहतर व स्वतंत्र माहौल है, तभी विदेश जाने की ऐसी मानसिकता भारतीयों में बनी है। इसके लिए केवल वे बहु-संख्यक ज़िम्मेदार हैं, जो हमारे महान् देश भारत को संकीर्ण बनाना चाहते हैं, अपनी घटिया सोच अन्य लोगों पर ठोसना चाहते हैं।


राजनीतिक रोटियां सेंक रहे कुछ घटिया मानसिकता वाले लोग

भारत में केवल कुछ मुट्ठी भर बहुसंख्यक लोग बिना वजह ‘धर्म परिवर्तन’ को एक मुद्दा बना कर अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकना चाहते हैं। जब वे भारतीय मसीही समुदाय के विरुद्ध ज़हर उगलते हैं, तो उससे समस्त विश्व में भारत की छवि बिगड़ती है तथा अन्य देशों में शांतिपूर्वक बसने वाले करोड़ों भारतीयों के लिए ख़तरे पैदा होते हैं। विदेशों के कुछ कट्टर किस्म के मूर्ख लोग भी बदले की कोई कार्यवाही कर सकते हैं। इस लिए ऐसे तथाकथित राजनीति करने वालों को ऐसी होशियारियां दिखलानी बन्द कर देनी चाहिएं और अपनी राजनीति की दुकान विकास एवं कल्याण कार्यों के मुद्दों के आधार पर चलानी चाहिए।

भारत में पैदा हुए मसीही विशुद्ध भारतीय हैं तथा वे वक्त आने पर अपने देश के लिए अपनी जानें कुर्बान करते रहे हैं और करते रहेंगे, परन्तु कभी अपनी ऐसी कुर्बानियों का बखान भी नहीं करेंगे। उन्हें ऐसे तथाकथित बहुसंख्यक, ढोंगी राजनीतिज्ञों से राष्ट्रवादी या देश-भक्त होने के प्रमाण-पत्र लेने की कोई आवश्यकता नहीं है।


अंग्रेज़ों के दशमांश भारत भेजने पर भी आपत्ति है भारत की सांप्रदायिक ताकतों को

पहली बार पक्की ईंटों से निर्मित जगाधरी अस्पताल का पहला चरण 1914 में खुल गया था। कैन्टन विलेज्स मिशन ने इसके लिए खुल कर फ़ण्ड भेजे थे। परन्तु उसी वर्ष 28 जुलाई को प्रथम विश्व युद्ध छिड़ गया, जो 11 नवम्बर, 1918 तक चला, जिससे पंजाब में कल्याण कार्यों के लिए आने वाली वित्ती सहायता बन्द हो गई। पवित्र बाईबल के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति को अपनी आय का 10वां अंश (दशमांश) जन-कल्याण कार्यों के लिए निकालना आवश्यक है। अब विदेश में रहने वाले औसत लोगों की आय, भारत के हिसाब से, यदि कम से कम 2 करोड़ रुपए हो, तो उसका दशमांश 20 लाख होगा। इधर बेचारे ‘अकल से पैदल’ कुछ सांप्रदायिक संगठनों के देश तथा समाज-विरोधी तत्त्वों ने यह बात गढ़ रखी है कि वे लोग ग़रीबों या दलितों को मसीही बनाने के लिए ऐसी राशि भेजते हैं। भई, इस्लाम धर्म को मानने वाले मुस्लिम तथा सिक्ख कौम में भी दशमांश का रिवाज है और वे लोग भी भारत में बड़े स्तर पर उसी राशि से कल्याण कार्य कर रहे हैं।


सांप्रदायिक ताकतों को देश की एकता व अखण्डता से कोई लेना-देना नहीं

अनेक हिन्दु संगठन दान की राशियों से ऐसे कार्य समाज के लिए करते हैं परन्तु उन सब पर कभी कोई ऐसी आपत्ति नहीं जताता कि वे ग़रीबों को हिन्दु बनाने हेतु कल्याण-कार्य करते हैं। परन्तु जब कभी मसीही समुदाय ऐसे कार्य करता है, तो उन पर ये घटिया मानसिकता वाले लोग बिना मतलब ‘धर्म-परिवर्तन’ के आरोप लगाते हैं। इस का ये मतलब नहीं है कि आरोप लगाने वाले ये लोग ऐसे ही होते हैं, दरअसल, वे जानबूझ कर अनजान होने का घटिया किस्म का नाटक किया करते हैं। ये वही लोग हैं, जो एक विशेष पार्टी की सरकार केन्द्र में स्थापित होने पर ही अपने बिलों से बाहर आने वाले चूहे तथा बरसाती मेंढक होते हैं। इन लोगों का काम केवल देश में सांप्रदायिक फूट डालते हुए अपनी घटिया किस्म की राजनीति चलाना है - इन्हें देश की एकता व अखण्डता से कोई लेना-देना नहीं है, ये ऐसी बातों का केवल ढोंग करते हैं। केवल ऐसे ही लोगों के कारण देश उतनी प्रगति नहीं कर पाया, जितनी कि अब तक कर चुका होता। ये लोग देश के संविधान व उसकी रक्षा के लिए बड़ा ख़तरा हैं।


समाज-विरोधी तत्त्वों के मुंह सदा के लिए बन्द करने होंगे

अफ़सोस इस बात का है कि भारत में मसीहियत के विरुद्ध बोलने वाले चन्द लोगों को अब उच्च पदों पर आसीन किया जा रहा है। ऐसे लोगों के असलियत हमीं लोगों को जनता के सामने लानी होगी। ये वक्त प्रार्थनाओं के साथ-साथ कुछ कार्यवाही करने का भी है। ऐसा न हो कि ऐसे समाज-विरोधी तत्त्व कहीं भारतीय मसीही कौम को कोई बड़ी क्षति पहुंचा दें और हम लोग केवल प्रार्थनाएं करते ही रह जाएं। प्रभु यीशु मसीह का एक बढ़ई (कारपैन्टर) के घर जन्म लेना केवल यह समझाने के लिए था, कि हम सब को सख़्त मेहनत करनी चाहिए, जैसे एक बढ़ई हर बार करता है। फिर अपनी दुनियावी मौत से कुछ समय पहले उन्होंने अपनी सलीब स्वयं उठा कर हम सब को यही सिखलाया कि हम सभी को अपने-अपने बोझ स्वयं उठाने चाहिएं, किसी और के सहारे की ओर नहीं देखते रहना चाहिए। अतः हम सभी मसीही लोगों को अपने बोझ स्वयं उठाते हुए ऐसे समाज-विरोधी तत्त्वों के मुंह सदा के लिए बन्द करने होंगे - वह भी पूर्णतया भारतीय संविधान की सीमा के अन्दर रहते हुए एवं अहिंसक ढंग से यह सब क्रियान्वित करना होगा। ऐसी दलीलें इन लोगों के समक्ष रखनी होगी कि इनकी बोलती बन्द हो जाए एक-एक दलील उनके मुंह पर चपेड़ों की तरह लगे। यह सब हम कर सकते हैं, हम सब को इसके लिए हिम्मत जुटानी होगी।


सब कुछ देख कर भी अनजान न बनें मसीही नेता

परन्तु अब पिछले कुछ समय में देखा यही गया है कि अधिकतर मसीही नेता ये सब देखकर भी ऐसे अनजान बनते दिखाई देते हैं, जैसे कोई कबूतर किसी बिल्ली को देखकर अपनी आँखें मूंद लेता है और फिर यही समझता है कि बिल्ली अब क्योंकि उसे दिखाई नहीं दे रही, इस लिए अब सब ठीक है जबकि वास्तव में बिल्ली को हर पल उसके समीप आ रही है और उसके अस्तित्व तक को ख़तरा है। भारत में मसीहियत की स्थिति बिल्कुल इसी तरह है।

अब दक्षिण भारत को छोड़ कर अधिकतर भारत में क्योंकि मसीहियत अंग्रेज़ मिशनरियों के प्रभाव से फैली थी और केवल कुछ मुट्ठी भर सच्चे मसीही विदेशी पादरी व प्रचारक साहिबान को छोड़ कर अधिकतर तो ब्रिटिश (अंग्रेज़) सरकार के चमचे व उनके पिट्ठू ही हुआ करते थे। जब कभी भारतीय क्लीसिया में कोई मसीही उन विदेशी पादरी साहिबान के समक्ष इस आशा से अपनी कोई समस्या या मांग रखता था कि शायद वे अंग्रेज़ शासकों से कह कर सब ठीक करवा देगा। परन्तु ऐसे पादरी साहिबान तो स्वयं उन शासकों से डरते थे, क्योंकि उन व्यापारी किस्म के लोगों ने कभी धर्म की ओर तो ध्यान ही नहीं दिया तथा न ही कभी उन शासकों को कभी किसी मसीही को कोई उच्च पद दिया। अतः उस समय के अधिकतर पादरी साहिबान डरके मारे अपनी भारतीय क्लीसिया को केवल सदा प्रार्थना करने में प्रत्येक समस्या का हल ढूंढना सिखाया करते थे। ऐसा प्रचलन आज तक कायम है। यही कारण है कि भारत के स्वतंत्रता संग्राम के आन्दोलनों में बंगाल व दक्षिण भारत को छोड़ कर देश के अन्य क्षेत्रों के मसीही लोगों ने ज़्यादा भाग नहीं लिया था। ठीक है यदि हमारी पवित्र बाईबल प्रार्थना करना सिखलाती है, तो दर्जनों आयतें ऐसी भी तो हैं, जो हमें केवल और केवल अपने सच्चे सख़्त परिश्रम पर ही भरोसा करना सिखलाती हैं। जैसे ‘नीति वचन’ के 12वें अध्याय की 11वीं आयत में स्पष्ट लिखा है जो लोग अपनी भूमि पर स्वयं काम करते हैं, वे तो पेट भर खाना खाएंगे परन्तु जो लोग केवल कल्पना के संसार में रहते हैं, वे मूर्ख बने रहेंगे। इसी तरह ‘नीति वचन’ के ही 13वें अध्याय की चौथी आयत में लिखा है कि परिश्रम न करने वाले सुस्त व्यक्ति को कभी पेट भर खाना नसीब नहीं होगा परन्तु समझदार व सख़्त परिश्रम करने वाले व्यक्ति की सभी इच्छाएं सदा पूर्ण होती रहेंगी। सख़्त मेहनत करना सिखलाने वाली ऐसी दर्जनों आयतें पवित्र बाईबल में दर्ज हैं।


Mehtab-Ud-Din


-- -- मेहताब-उद-दीन

-- [MEHTAB-UD-DIN]



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