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1857 की क्रांति, मसीही डॉ. चमन लाल की शहादत व भारतीय मसीहियत



ऐसे लगा भारतीय मसीही लोगों को ‘टैग’

1857 के प्रथम स्वतंत्रता आन्दोलन में मसीही समुदाय ने भाग लिया या नहीं, इसके कोई ठोस प्रमाण मौजूद नहीं हैं। वैसे इतना अवश्य है कि प्रथमतया भारत के मसीही तत्कालीन अंग्रेज़ शासकों के डर के कारण स्वतंत्रता संग्राम में भाग नहीं लिया करते थे, यही कारण है कि उनके साथ यह ‘टैग’ लग गया कि ‘भारतीय मसीही समुदाय के लोग तो अंग्रेज़ों के पिट्ठू हैं’ और बहु-संख्यक भारतीय आज भी इसी धारणा को मानते हैं।

वास्तव में 1857 की क्रांति के समय माहौल कुछ और ही प्रकार का था। पंजाब व राजस्थान में इसका कोई अधिक प्रभाव देखने को नहीं मिला था परन्तु वर्तमान उत्तर प्रदेश, दिल्ली व बिहार तथा झारखण्ड तक के अवध कहलाने वाले क्षेत्रों में इस बग़ावत का बहुत अधिक प्रभाव था। उस समय भारत में मसीही लोगों की संख्या इतनी नहीं थी। उस समय देश के हिन्दुओं व मुसलमानों में अंग्रेज़ शासकों के प्रति बहुत अधिक घृणा थी। ज़्यादातर भारतीय सैनिकों को इन शासकों द्वारा उपलब्ध करवाई गई विशेष तोप में इस्तेमाल में लाए जाने वाले गोलों व अन्य बारूद में सूअर की चर्बी पर अधिक एतराज़ था। इसी लिए तब अंग्रेज़ों के विरुद्ध देश की उस प्रथम बग़ावत में कुछ ऐसा प्रचार भी अधिक हो गया था कि अंग्रेज़ अब सभी भारतियों को ईसाई बनाने वाले हैं। फिर अंग्रेज़ शासकों के ज़ुल्म भी काफ़ी बढ़ने लगे थे। क्रूर तो वे थे ही। इसी लिए उस बग़ावत में बाग़ियों/क्रांतिकारियों ने सब से अधिक अंग्रेज़ों व नए-नए मसीही बने भारतियों को अपना निशाना बनाया था।


मसीही चमन लाल दिल्ली में हुए थे 1852 में शहीद

Indian Mutiny उसी समय नए-नए मसीही बने चमन लाल को निशाना बनाया गया था। चमन लाल तब दिल्ली के दरियागंज क्षेत्र में अपना एक अस्पताल चलाया करते थे। बाग़ियों ने उन्हें 11 मई, 1857 को मौत के घाट उतार दिया था। उन्हें भारतीय मसीही शहीद भी माना जा सकता है, क्योंकि चमन लाल जी का अपना तो कोई कसूर नहीं था। किस व्यक्ति ने किस धर्म को मानना है; यह प्रत्येक वयक्ति का अपना स्वयं का व्यक्तिगत निर्णय होता है। वह केवल उस समय की सांप्रदायिक हवा व माहौल की भेंट चढ़ गए। अफ़सोस की बात यह है कि ऐसा माहौल उस घटना के घटित होने के पौने दो सौ वर्षों के पश्चात अब भी कभी-कभार भारत में देखने को मिल जाता है।


क्या था 1857 के विद्रोह का मुख्य कारण?

ईस्ट इण्डिया कंपनी ने 1857 के विद्रोह (जिसे भारतीय स्वतंत्रता का प्रथम युद्ध भी कहा जाता है) के दौरान मस्कट नाम की एक इन्फ़ील्ड राईफ़ल अपनी सेना को दी थी, जिस का कार्टरिज (कारतूस) मुंह से खोलना पड़ता था। तब उसे राईफ़ल के भीतर डालने के लिए चिकनाई की आवश्यकता होती थी और उस कार्टरिज को बहुत बार दांतों से खोलना पड़ता था। उस पर लगी चिकनाई के बारे में यह अफ़वाह फैल गई कि उन कार्टरिज पर लगी चिकनाई गाय एवं सूअर के मांस की चर्बी से बनी हुई है। अंग्रेज़ों के बारे में क्योंकि तब यह बात प्रसिद्ध थी कि वे इन दोनों जानवरों को खाते हैं। स्थानीय भारतीय हिन्दु एवं मुस्लिम सैनिकों ने भी सेना में विद्रोह कर दिया क्योंकि ऐसे कार्टरिज्स (कारतूसों) से उनका धर्म भ्रष्ट होता था। उनका मानना था कि कार्टरिज पर घी या कोई अन्य शाकाहारी खाद्य तेल भी लगाया जा सकता है।


ऐसे हुई थी डॉ. चमन लाल की शहादत

तब यह बात भी फैल गई कि ईस्ट इण्डिया कंपनी ने ऐसा जानबूझ कर भारत में मसीहियत एवं मसीही सिद्धांत लागू करने के लिए ऐसे कारतूस सेना को दिए हैं। तब मुग़ल बादशाह बहादर शाह ज़फ़र का राज्य था। 11 मई, 1857 को बादशाह ज़फ़र ने चांदनी चौक में खड़े होकर वहां एकत्र लोगों से पूछा कि क्या वे सब मुसलमान बन गए हैं? जो अंग्रेज़ पुरुष एवं महिलाएं पहले ही इस्लाम को ग्रहण कर चुके थे तथा ईस्ट इण्डिया कंपनी से बाग़ी हुए सार्जैंट-मेजर गौर्डन तथा कंपनी के पूर्व सैनिक अब्दुल्लाह जैसे लोगों को तो छोड़ दिया गया परन्तु वहां पर मौजूद विदेशी मसीही पादरी मिजेले जौन जैनिंग्स तथा भारत में नए मसीही बने बादशाह ज़फ़र के निजी डॉक्टर चमन लाल जैसे लोगों को तुरन्त मौत के घाट उतार दिया गया।


अंग्रेज़ी स्कूलों में पढ़े भारतियों ने की भारत के स्वतंत्रता आन्दोलनों की अगुवाई

यह भी एक तथ्य है कि 1857 के बाद देश-भक्त लोगों का हजूम बढ़ता चला गया। इस मामले में दिलचस्प बात यह है कि ‘‘बाद में उन्हीं भारतियों ने स्वतंत्रता आन्दोलनों की अगुवाई की, जो अंग्रेज़ मिशनरियों द्वारा चलाए गए विद्यालयों व महा-विद्यालयों में अंग्रेज़ी पढ़े थे तथा विदेशों में आज़ादी के महत्त्व को जानते व पहचानते थे।’’ यह बात इतिहासकार विलियम डालरिम्पल ने ‘बीबीसी’ के पत्रकार सूतिक बिसवास को दिए एक साक्षात्कार में कही थी। श्री विलियम की पुस्तक ‘दि लास्ट मुग़ल’ काफ़ी चर्चित हुई है, जिसे बलूम्सबरी ने प्रकाशित किया था।


भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलनों में भाग लेने वाले ईसाईयों की संख्या काफ़ी अधिक

बहुत से भारतीय मसीही उससे पहले भी अपने-अपने स्थान पर देश-भक्ति से ओत-प्रोत थे - उन सभी का वर्णन हम यहां पर करेंगे। परन्तु गांधी जी के आन्दोलनों में ऐसी कोई बात नहीं हुआ करती थी। फिर रिफ़ार्मड चर्चों ने अपनी-अपनी क्लीसियाओं (मसीही जनों) को भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने हेतु प्रेरित करना प्रारंभ कर दिया था। ऐसे चर्चों से 1900 से ले कर 1930 के मध्य जो मसीही स्वतंत्रता संग्रामी नेता उभरे, उन में से प्रमुख नाम इस प्रकार हैं - एच.सी. मुखर्जी, राजा सर महाराज सिंह, के.टी. पौल, एस.के. दत्ता, वी.एस. अज़रियाह एवं वी. सैन्टियागो। इनमें से के.टी. पौल, एस.के. दत्ता एवं वी.एस. अज़रियाह ने तो अपने-अपने क्षेत्रों के भारतीय मसीही समुदाय में राष्ट्रवाद की भावना कूट-कूट कर भर दी थी। इसके लिए चाहे उन्हें अपने कुछ अन्य भारत के मसीही साथियों के सख़्त विरोध का भी सामना करना पड़ा था। परन्तु कुछ अंग्रेज़ मसीही प्रचारक भी ऐसे भारतीय मसीही आन्दोलनकारियों के साथ सदैव जुड़े रहे। 1930 से लेकर 1940 के मध्य असंख्य मसीही भाई व बहनें भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (इण्डियन नैश्नल कांग्रेस) के साथ स्वतंत्रता-प्राप्ति के उद्देश्य हेतु जुड़ चुके थे। तब राजनीतिक मामलों पर मसीही विचार स्पष्ट करने के लिए अनेक मसीही संगठन भी कायम हुए; जिनमें से क्रिस्चियन पैट्रियॉट ग्रुप ऑफ़ मदरास तथा इण्डियन क्रिस्चियन ऐसोसिएशन प्रमुख हैं।

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-- -- मेहताब-उद-दीन

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