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मसीही समुदाय के विभिन्न स्वतंत्रता आन्दोलनों में भाग लेने के रेकार्ड मौजूद



ईसाई समुदाय ने अपने मसीही स्वतंत्रता संग्रामियों को व सम्मान नहीं दिया, जो देना चाहिए था

भारत में हमारे मसीही समुदाय पर यही आरोप लगते रहे हैं कि मसीही समुदाय का भारत के स्वतंत्रता आन्दोलन में कोई योगदान नहीं था और ‘‘ईसाई तो अंग्रेज़ों के ही मित्र व भारत-विरोधी रहे हैं ; जब कि ऐसे आरोप बिल्कुल बेबुनियाद व खोखले हैं। ऐसी धारणाओं के चलते ही स्वतंत्रता प्राप्ति के 70 वर्ष बाद तक भी किसी भी राजनीतिक दल ने हमें देश के राष्ट्रपति या प्रधान मंत्री जैसे प्रमुख पद के योग्य नहीं समझा। सन् 2011 की जनगणना के अनुसार भारत में मसीही समुदाय की संख्या लगभग 2 करोड़ 78 लाख है जबकि सिक्ख भी हमारी तरह ही भारत में अल्प-संख्यक हैं तथा उनकी जनसंख्या भी इसी जनगणना के अनुसार लगभग 2.78 करोड़ ही है परन्तु विगत वर्षों में उनका कोई न कोई प्रतिनिधि प्रधान मंत्री भी रह चुका है तथा राष्ट्रपति भी। हमें केवल इसी लिए छोड़ दिया जाता है कि हम अपने उन मसीही स्वतंत्रता संग्रामियों/सेनानियों कभी स्मरण नहीं करते, कभी अन्य जातियों को गर्व से उनके बारे में बताते नहीं हैं।


अपना अस्तित्त्व छिपाने का प्रयत्न करते हैं मसीही

सिक्ख भाईयों की प्रार्थनाओं में शहीदों व सेनानियों को सदैव व प्रत्येक स्थिति में स्मरण किया जाता है; यही कारण है कि आज हम उनके सभी शहीदों व योद्धाओं के नाम जानते हैं परन्तु हमारे शहीदों के कोई नाम तक नहीं जानता और अधिकतर लोग स्वतंत्रता संग्राम में मसीही समुदाय के बहुमूल्य योगदान पर भी प्रश्न चिन्ह लगाने का प्रयत्न करते हैं। और यदि कोई भूले से हमारा कोई भाई भारत का रक्षा मंत्री बन भी जाता है तो वह अपने मसीही अस्तित्व को छिपाता हुआ घूमता रहता है कि ताकि कोई उसे मसीही समझ कर उनकी देश-भक्ति पर प्रश्न खड़ा न कर दे। हम सभी को अपने मसीही युवाओं को यह समझाना होगा कि वे ‘गर्व से कहें कि हम मसीही हैं’।

भारतीय मसीही समुदाय की कुछ कड़वी सच्चाईयां

George Fernandes & AK Antony ताज़ा उदाहरण के तौर पर पिछले 20 से भी कम वर्षों में श्री जार्ज फ़रनाँडेज़ व श्री ए.के. एन्टोनी भारत के रक्षा मंत्री रह चुके हैं परन्तु वे अपने कार्यकाल के दौरान स्वयं प्रार्थना हेतु कभी चर्च नहीं जाते थे। कभी किसी चर्च ने उन्हें किसी समारोह के लिए बुला लिया तो अलग बात है। कोई बड़ा राजनीतिक नेता दूर-दराज़ के मसीही समुदाय के किसी समारोह विशेष में तो यीशु मसीह व मसीही समुदाय का नाम ले देगा परन्तु दिल्ली वापिस जा कर राष्ट्रीय मंच से कभी भी ईसाईयों के लिए कोई घोषणा करने की हिम्मत नहीं जुटा पाएगा। हम यहां कोई राजनीतिक चर्चा करने के लिए नहीं बैठे हैं, परन्तु इन कड़वी सच्चाईयों से मुंह भी तो नहीं मोड़ सकते। एक राष्ट्रीय पार्टी की सरकार 10 वर्ष भारत में रहती है, जब उसकी राष्ट्रीय अध्यक्षा क्रिस्चिियन हैं; परन्तु वे एक दशक में कभी ईसाईयों के लिए कोई एक बड़ी घोषणा करने की हिम्मत नहीं कर सकीं। ऐसी कुछ परिस्थितियों के चलते हमारी आने वाली मसीही पीढ़ियां हमीं से प्रश्न पूछ सकती हैं कि आपने अब तक लोगों को अपने ‘भारतीय मसीही इतिहास’ के बारे में खुल कर क्यों नहीं बताया।


युवाओं को मसीही इतिहास संबंधी जागरूक करने की आवश्यकता

हमें अपनी ज़िम्मेदारी को समझना होगा ऐसे प्रयत्न हम लोगों को स्वयं करने होंगे कि लोग स्वतंत्रता आन्दोलन में मसीही समुदाय के योगदान संबंधी अधिक से अधिक जानें। हमारे बहुत से मसीही भाई-बहन/परिवार ऐसे हैं, जिन्हें आध्यात्मिक शक्ति के साथ दुनियावी/सांसारिक शक्ति की भी अत्यंत आवश्यकता है। उन्हें रोज़ की रोटी कमाने के लिए अत्यधिक प्रयत्न करने पड़ते हैं, कुछ सरकारी योजनाएं ऐसी हों जो किसी ढंग से उनकी सहायता कर सकें। यीशु मसीह ने इस दुनिया में हमें सांसारिक परिश्रम सिखलाने हेतु ही एक बढ़ई के घर में जन्म लिया था। क्या वे किसी राजा के घर में जन्म नहीं ले सकते थे। परन्तु इसमें भी उनका एक भेद था; क्योंकि जिन कीलों व लकड़ी से उन्होंने बचपन में खेलना था, उन्हीं कीलों द्वारा उन्हें लकड़ी की सलीब पर टांगा जाना था एवं उन्होंने अपनी संासारिक जान एक बार देनी थी और फिर तीसरे दिन मुर्दों में से पुनःजीवित हो उठना था।

ख़ैर, यह सभी बातें तो आप लोग जानते ही हैं, केवल मसीही युवाओं को इस संबंधी जागरूक करने की आवश्यकता है। आज मसीही समुदाय की भारत के स्वतंत्रता आन्दोलन में योगदान की बात बहुत कम हो पाएगी।


मसीही समुदाय के विभिन्न स्वतंत्रता आन्दोलनों में भाग लेने के बाकायदा रेकार्ड मौजूद

Serampore Collegeऐसे रेकार्ड बाकायदा विद्यमान हैं, जिनसे 1905 की ‘स्वराज’ लहर, 1920 के ‘असहयोग आन्दोलन’, 1930 के ‘सविनय अवज्ञा आन्दोलन’ व 1942 के ‘भारत छोड़ो’ आन्दोलन में मसीही समुदाय की बड़ी सक्रियता संबंधी जानकारी मिलती है। 1920 के दशक में तो बंगलौर स्थित युनाईटिड थियोलोजिकल कॉलेज, बंगाल के सीरामपुर कॉलेज, कलकत्ता (बंगाल) स्थित सेंट पौल’ज़ कॉलेज, कालीकट (केरल) स्थित मालाबार क्रिस्चियन कॉलेज, केरल स्थित यूथ क्रिस्चियन काऊँसिल ऑफ़ एक्शन, स्टूडैंट्स क्रिस्चियन मूवमैन्ट ऑफ़ इण्डिया, दा इण्डियन क्रिस्चियन ऐसोसिएशन ऑफ़ बंगाल से संबंधित मसीही नेताओं व विद्यार्थियों के समूह, ऑल इण्डिया कान्फ्ऱेंस ऑफ़ इण्डियन क्रिस्चियन्स, दा नैश्नल क्रिस्चियन काऊँसिल ऑफ़ इण्डिया जैसे बहुत सारे मसीही संस्थानों व संगठनों द्वारा तथा बंबई में मसीही समुदाय की एक बड़ी कान्फ्ऱेंस, तामिल नाडू के पलायमकोट्टा एवं तिन्नावेल्ली नगरों में हुईं बैठकों में अनेकों बार ऐसे प्रस्ताव पारित किए गए थे, जिनमें स्वतंत्रता आन्दोलन के साथ पूर्ण एकजुटता प्रकट की जाती थी। तब बहुत से मसीही नेताओं ने तत्कालीन ब्रिटिश बस्तीवादी (उप-निवेशिक) सरकार के विरुद्ध आन्दोलनों में भाग लिया था।

पश्चिमी बंगाल के सीरामपुर में स्थित ‘सीरामपुर कॉलेज’ (अब इसे ‘सीरामपुर कॉलेज ऑफ़ थियोलोजी’ के नाम से जाना जाता है) का सुसंस्थापन 1818 ई. सन् में प्रसिद्ध मसीही मिशनरियों जोशुआ मार्शमैन, विलियम केरी एवं विलियम वार्ड द्वारा किया गया था। यह भारत का ऐसा प्रथम संस्थान है, जिसे 1829 ई. में एक विश्वविद्यालय (युनीवर्सिटी) का दर्जा मिल गया था। इसके अनेकों मसीही नेताओं व विद्यार्थियों ने समय-समय पर भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन में बढ़-चढ़ कर भाग लिया था।


मसीही स्वतंत्रता संग्रामियों को अत्यंत परेशान करते थे ब्रिटिश शासक

ग्रैगर आर. कोल्लानूर, डॉ. जे. कुरूवाचिरा, जॉर्ज थॉमस व आर्थर जयकुमार जैसे बहुत सारे चर्च-इतिहासकारों ने भारतीय चर्च के इतिहास को लिखा है तथा उनमें से अधिकतर ने मसीही समुदाय के स्वतंत्रता संग्राम में सक्रियतापूर्वक भाग लेने की बात कही है। आर्थर जयकुमार के अनुसार 27 से 30 दिसम्बर, 1922 को समस्त भारत के मसीही लखनऊ में इकट्ठे हुए थे तथा उन्होंने इस बात पर खुल कर विचार-विमर्श किया था कि भारत से अंग्रेज़ों को कैसे खदेड़ा जाए। परन्तु इसी कारण अंग्रेज़ शासकों ने तब बहुत से मसीही लोगों को जेल की हवा खिला दी थी - उन सब का यही दोष था कि उन्होंने तत्कालीन अत्याचारी सरकार के विरुद्ध इस प्रकार की चर्चा करते हुए राष्ट्रीय स्वतंत्रता आन्दोलनों में खुल कर भाग लेने का निर्णय लिया था।


s बिशप कालेज कलकत्ता के मसीही विद्यार्थी थे स्वंतत्रता संग्रामी, प्रिंसीपल का पत्र है प्रमाण

Bishop Church College, Kolkata इसके अतिरिक्त कलकत्ता स्थित बिशप कॉलेज के प्रधानाचार्य एन.एच. टब्बस ने अपनी मिशन को 23 फ़रवरी, 1921 को एक गोपनीय पत्र लिख कर अपने अधिकारियों को सूचित किया था कि ‘‘पिछले कुछ माह के दौरान एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण व विशेष बात देखने को मिल रही है कि बहुत से मसीही विद्यार्थी भी अब महात्मा गांधी के राष्ट्रीय असहयोग आन्दोलन में दिलचस्पी लेने लगे हैं।’’


असम के बिशप थे नमक आन्दोलन में अग्रणी

निराद बिसवास, जो बाद में चर्च ऑफ़ इण्डिया-बर्मा-सीलोन (सी.आई.बी.सी.) के असम के बिशप नियुक्त हुए थे, ने 1932 में कलकत्ता के बाहर नमक बनाने के राष्ट्रीय आन्दोलन में भाग लिया था।


अन्य बहुत से बहु-चर्चित मसीही चेहरे रहे भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन में

जॉर्ज थॉमस के अनुसार ब्रह्मबन्द्धब उपाध्याय (11 फ़रवरी 1861-1907) ने चाहे बंगाल के हुगली ज़िले के एक छोटे से गांव खान्यान एक हिन्दु परिवार में जन्म लिया था परन्तु वह एक प्रसिद्ध कैथोलिक साधु व जाने-माने मसीही प्रचारक बने थे। उनकी भूमिका भी स्वतंत्रता संग्राम के स्वदेशी आन्दोलन में अग्रणी रही थी। वह उन प्रारंभिक नेताओं में से एक थे, जिन्होंने वास्तव में असहयोग आन्दोलन चलाने की सलाह सब से पहले दी थी। वह एक राष्ट्रीय समाचार-पत्र ‘सन्ध्या’ के संपादक थे, जो 1904 से प्रकाशित होना प्रारंभ हुआ था। बंगला भाषा कां तब यही एकमात्र अग्रणी अख़बार हुआ करता था तथा इसमें प्रकाशित होने वाली बात समस्त देश में फैल जाती थी। श्री उपाध्याय ने तब भारतीय राष्ट्रीयवाद का खुल कर समर्थन किया, जिसका सीधा प्रभाव जन-साधारण, विशेषतया मसीही समुदाय पर पड़ा और वे स्वतंत्रता संग्राम के आन्दोलन में कूद पड़े। फिर 1923 में रांची में समस्त भारत के प्रमुख मसीही नेताओं की एक कान्फ्ऱेंस हुई, जिसमें राष्ट्रीय आन्दोलनों में भाग लेने हेतु प्रस्ताव पारित किया गया। 1930 में जब महात्मा गांधी जी ने अपने साबरमती आश्रम से लेकर डांडी तक ‘नमक मार्च’ किया था तो उनके साथ 78 अन्य विशेष साथियों ने भी भाग लिया था। उन व्यक्तियों में थेवरथुण्डीयिल तीतुस तीतुस नामक मसीही भाई भी ख़ूब उत्साह से सम्मिलित थे। श्री तीतुस वास्तव में त्रावनकोर राज्य (जो अब केरल का भाग है) के एक मसीही परिवार से संबंधित थे। त्रावनकोर राज्य में 1930 व 1940 के दश्कों के दौरान टी.एम. वर्गीज़, ए.जे. जौन, ऐने मास्केरियन्स एवं अक्कमा चेरियन जैसे प्रमुख मसीही नेताओं ने जन-साधारण को बड़े स्तर पर स्वतंत्रता आन्दोलन में भाग लेने हेतु प्रेरित किया था। श्री फ़िलिपोस एलनजीक्कल जौन (1903-1955) तो त्रावनकोर राज्य कांग्रेस के प्रमुख सदस्य भी रहे थे।


उत्तर भारत के अपेक्षाकृत दक्षिण भारत के मसीही अधिक सक्रिय रहे स्वतंत्रता संग्राम में

वैसे तो 1947 से पूर्व भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने वाले मसीही भाईयों-बहनों की वास्तविक संख्या मालूम करना बहुत अधिक कठिन है, क्योंकि दक्षिण भारत के मसीही समुदाय तो पहले से काफ़ी जागरूक थे परन्तु उत्तर भारत के मसीही समुदाय ने अपना कोई रेकार्ड संगठित रूप में नहीं रखा। अगर ऐसा कोई रेकार्ड है, तो वह चन्द गिर्जाघरों, मसीही विद्यालयों व मसीही धार्मिक शिक्षा-केन्द्रों के इतिहास व उनसे जुड़े रहे मसीही भाईयों-बहनों तक ही सीमित है। उत्तर भारत के युवाओं में भारत में मसीही/ईसाई इतिहास को जानने की उतनी इच्छा नहीं पाई जाती, जितनी कि दक्षिण भारत में है। इसी लिए ऐसा लगता है कि भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में केवल दक्षिण भारत या कलकत्ता (अब कोलकाता) अथवा सीरामपुर, मेरठ या लखनऊ के ही मसीही समुदाय का बड़ा योगदान रहा है।


फिर भी वर्णनीय रहा उत्तर भारत के मसीही समुदाय का योगदान

वैसे वर्तमान पंजाब, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, जम्मू-कश्मीर, राजस्थान, गुजरात, उत्तर प्रदेश, बिहार जैसे राज्यों सहित उत्तर व उत्तर पूर्वी व मध्य भारत के मसीही भी एकसमान रूप से स्वतंत्रता आन्दोलनों में सक्रिय रूप से भाग लेते रहे हैं। उनके बारे में भी विस्थारपूर्वक चर्चा होगी।

Mehtab-Ud-Din


-- -- मेहताब-उद-दीन

-- [MEHTAB-UD-DIN]



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