अंग्रेज़ शासकों को भारत से भगाने के लिए 1885 में बनी थी कांग्रेस पार्टी
1558 में अलग कर दिया था महारानी एलिज़ाबैथ ने चर्च को राजनीति से
भारत में अंग्रेज़ व्यापारी शासकों ने अपने ही साथी अंग्रेज़ बिशप अथवा पादरी साहिबान की कभी कोई बात नहीं मानी। वैसे भी कयोंकि इंग्लैण्ड में 1555 में जब महारानी मेरी-प्रथम एवं राजा फ़िलिप का राज्य था, तब तक तो पादरी साहिबान, विशेषतया पोप व अन्य धार्मिक विद्वानों का पूर्ण हस्तक्षेप/दख़ल राजनीति में होता रहा परन्तु 1558 में जैसे ही महारानी एलिज़ाबैथ का राज्य आया, तब तक क्योंकि सुधारवादी ईसाईयों व रोमन कैथोलिक्स के परस्पर विवाद बहुत अधिक बढ़ने लगे थे, कुछ धार्मिक लोग अपने विरोधियों को चित्त करने हेतु धर्म को अपने स्वार्थों के लिए इस्तेमाल करने लगे थे, इसी लिए महारानी ने उसी वर्ष ‘एक्ट ऑफ़ सुपरीमेसी’ पारित करके चर्च (धर्म) व राजनीति को अलग कर दिया था। अतः भारत में राज्य करने के लिए आए ईस्ट इण्डिया कंपनी के शासकों ने भी कभी धार्मिक रहनुमाओं की एक नहीं सुनी। वैसे भी क्योंकि राजनीतिज्ञों ने अपनी कुछ न कुछ मनमानियों तो करनी ही होती हैं, इसी लिए वे केवल दिखावे मात्र हेतु धर्म को मानते है परन्तु कभी किसी धार्मिक नियम पर दिल से चलना नहीं चाहते। कांग्रेस पार्टी के प्रथम अध्यक्ष भी ईसाई थे और उस की नित्य-प्रति व सालाना बैठकों में मसीही लोग पूर्ण सक्रियता से भाग लेते थे इसी लिए अंग्रेज़ व्यापारी व अत्याचारी शासकों ने अपने धार्मिक रहनुमाओं को कभी आगे ही नहीं आने दिया और इतिहासकारों व साहित्यकारों को उनके बारे में कुछ लिखने भी नहीं दिया। परन्तु फिर भी जॉर्ज थॉमस जैसे प्रसिद्ध चर्च-इतिहासकार ने सच्चाई का विवरण देते हुए बहुत स्पष्ट रूप से लिखा है कि भारतीय ईसाई समुदाय ने स्वतंत्रता आन्दोलन में, विशेषतया भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के 1885 में सुसंस्थापन के समय से ही प्रभावशाली भूमिका निभाई थी; कांग्रेस के तो प्रथम अध्यक्ष डबल्यू.सी. (वोमेश चन्द्र) बैनर्जी भी मसीही थे। इस राजनीतिक दल अर्थात भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना भी अंग्रेज़ साम्राज्य की समाप्ति करवाने के उद्देश्य से ही हुई थी। इसी पार्टी के तृतीय वार्षिक सत्र (1887) में 607 प्रतिनिधियों ने भाग लिया था, जिनमें से 15 मसीही थे तथा उनमें से उड़ीसा के उस समय के प्रमुख मसीही आन्दोलनकारी नेता मधु सूदन दास (1848-1934), जो तब ‘उत्कल गौरव’ के नाम से प्रसिद्ध थे, ने तो उस सत्र को सम्बोधन भी किया था। आर.एस.एन. सुब्रामनियम नाम के एक अन्य मसीही नेता भी उस सत्र में सम्मिलित हुए थे। उसके पश्चात् होने वाले लगभग सभी सत्रों में भी ईसाई भाईयों ने बढ़-चढ़ कर भाग लिया था। बंगाली मसीही भाई तथा लाजवाब वक्ता श्री काली चरण बैनर्जी (1847-1907) तो प्रत्येक वर्ष ही वार्षिक सत्र को अवश्य ही सम्बोधित करते थे तथा उन्होंने राष्ट्रीय स्वतंत्रता लहर की नीतियां तैयार करने में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। 1889 के कांग्रेस सत्र में तीन मसीही महिला डैलीगेट्स पण्डिता रमाबाई सरस्वती (1858-1922), श्रीमति ट्रायमबक एवं श्रीमति निकांबे ने भी भाग लिया था। भारत में ब्रिटिश शासकों की क्रूरता व ज़ुल्मों के विरुद्ध आवाज़ उठाने वाले पादरी साहिबान को वे शासक भारत से वापिस इंग्लैण्ड भेज देते थे इंग्लैण्ड व अन्य बहुत से देशों से भारत आने वाले अनेक अंग्रेज़ पादरी व प्रचारक पहले तो ब्रिटिश शासकों की क्रूरताओं व ज़ुल्मों के विरुद्ध ज़ोरदर आवाज़ उठाते थे परन्तु जब ब्रिटिश शासक उन्हें डराते-धमकाते, तो फिर वे चुप करके बैठ जाते थे। ऐसे बहुत से विदेशी प्रचारकों को अंग्रेज़ों की सरकार ने भारत देश से बाहर निकाला था, जिन्होंने उनकी बात मानने से इन्कार किया था। ऐसे पादरी समय-समय पर सदा भारतियों के पक्ष में खड़े होते रहे। परन्तु अफ़सोस यही कि उनका वर्णन आज जानबूझ कर नहीं किया जाता। झूठ के सहारे ‘मेरा भारत महान’ नहीं हो सकता - जैसे आज-कल कुछ तथाकथित राष्ट्रवादी ऐसा करने में लगे हुए हैं। (1885 में कांग्रेस के प्रथम अधिवेशन का चित्रः स्क्रॉल डॉट इन) -- -- मेहताब-उद-दीन -- [MEHTAB-UD-DIN] भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन में मसीही समुदाय का योगदान की श्रृंख्ला पर वापिस जाने हेतु यहां क्लिक करें -- [TO KNOW MORE ABOUT - THE ROLE OF CHRISTIANS IN THE FREEDOM OF INDIA -, CLICK HERE]