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मसीही समुदाय का वर्णनीय योगदान था भारत के स्वतंत्रता आन्दोलन में



किसी ने वर्णन नहीं किया मसीही योगदान का

आर.एस.एस. के प्रमुख नेता एम.एस. गोलवाल्कर (1906-1973) ने अपनी पुस्तक ‘बन्च ऑफ़ थौट्स’ में, भारतीय जनता पार्टी की वाजपेयी सरकार में मंत्री रहे व प्रसिद्ध पत्रकार ने अपने बहुत से भाषणों में तथा अन्य ऐसे Bunch of Thoughts तथाकथित राष्ट्रवादी नेताओं ने अनेकों बार यह आरोप लगाए हैं कि ‘‘भारत के ईसाईयों का इस देश के स्वतंत्रता आन्दोलन में बिल्कुल भी कोई योगदान नहीं था, बल्कि वे तो अंग्रेज़ों व उनकी बस्तीवादी सरकार के साथ थे।’’ एन.सी.ई.आर.टी. या किसी राज्य शिक्षा बोर्ड की पाठ्य-पुस्तकों में भी कभी ईसाईयों के इस आन्दोलन में पाए बहुमूल्य योगदान का कोई वर्णन नहीं किया। ऐसे आरोप व दोष पूर्णतया ग़लत हैं। वास्तव में भारतीय ईसाईयों ने भी अपने अन्य साथी भारतीय नागरिकों की तरह उस आन्दोलन में उतना ही योगदान डाला था; परन्तु यह हमारे मसीही समुदाय की कमज़ोरी ही कही जाएगी कि वे स्वतंत्र भारत के लगभग 70 वर्षों के बाद भी अब तक लोगों को यही नहीं समझा पाए कि हम अब भी न तो किसी से कम हैं, न पहले कभी थे और न कभी कम रहेंगे।

वास्तव में जो अंग्रेज़ भारत में आकर राज्य कर रहे थे, वे यीशु मसीह को सही ढंग से मानने वाले बिल्कुल भी नहीं थे, वे तो व्यापारी व कारोबारी थे केवल दिखाने को मसीही थे। वे मुनाफ़े/लाभ कमाने के लिए भारत आए थे, इसी लिए वे भारतीयों को अपने दास/ग़ुलाम व काले लोग समझते हुए अत्याचार ढाहते थे। यह बात भारत के ईसाईयों को कैसे बर्दाश्त हो सकती थी। परन्तु ई. स्टैनले जोन्स, सी.एफ. ऐन्ड्रयूज़, जे.सी. विन्सलो, वेरियर, ऐल्विन, राल्फ़, रिचर्ड कीथाहन अर्नैस्ट फ़ॉरैस्टर-पैटन आदि जैसे बहुत से अंग्रेज़ मिशनरियों अर्थात मसीही प्रचारकों ने उन अत्याचारी अंग्रेज़ शासकों का कड़ा विरोध करते हुए भारत के ईसाईयों को स्वतन्त्रता आन्दोलन में बढ़-चढ़ कर भाग लेने की सलाह दी थी। उनके ऐसे अच्छे कार्यों से वे अत्याचारी व्यापारी शासक इन अपने ही साथी अंग्रेज़ मसीही प्रचारकों से क्रोधित हो गए थे तथा उन में से कईयों को भारत से ज़बरदस्ती निकाल (डीपोर्ट कर) दिया गया था। हम प्रयत्न करेंगे कि इस स्थान पर हम भारतीय ईसाईयों के स्वतंत्रता आन्दोलन में डाले योगदान संबंधी आपको ऐसी ही कुछ बहूमूल्य जानकारी दें।


आपसी मेलजोल अर्थात परस्पर सौहार्द ही चाहा भारतीय मसीही समुदाय ने

उस समय के भारतीय मसीही इतने देश-भक्त थे कि जब भी कभी उनसे पूछा जाता कि ‘स्वतंत्र भारत में अपने लिए कैसा रुतबा पसन्द करेंगे?’ तो वे कभी अपने लिए विशेष अधिकारों व सुविधाओं की बात नहीं किया करते थे, अपितु उनका सदा यही उत्तर हुआ करता था कि ‘हम स्वतंत्र भारत में केवल आपसी मेलजोल अर्थात परस्पर सौहार्द ही चाहेंगे।’ इस प्रकार देश के प्रति अपने प्यार व प्रतिबद्धता के कारण ही उन्होंने कभी अपने लिए विशेष पदों की मांग भी नहीं की। अस्पतालों, स्कूलों, कॉलेजों इत्यादि के क्षेत्र में मसीही समुदाय के योगदान व उसकी बहुमूल्य सेवा को भारत में आज भी विलक्ष्ण ही माना जाता है। आज भी मसीही समुदाय अपने महान् राष्ट्र भारत को निष्ठापूर्वक प्यार करता है, उसका आदर-सत्कार करता है तथा अपने देश के प्रति पूर्णतया प्रतिबद्ध है।


भारतीय मसीही समुदाय को आदत नहीं अपनी उपल्बधियां गिनवाने की

भारत में मसीही लोगों की संख्या इतनी कम होने के बावजूद भारत में उनका योगदान सदा अग्रणी रहा है परन्तु उन्हें अपनी उपलब्ध्यिां एवं प्राप्तियां अन्य लोगों के समक्ष गिनवाने की आदत नहीं है। भारत के स्वतंत्रता संग्राम में भी उनका योगदान अविस्मरणीय ही रहा है।


भारत में छुआछूत व जात-पात से छुटकारा दिलवाया मसीहियत ने

दरअसल भारत में अधिकतर मसीही लोग ऐसे संप्रदायों, जातियों व कबीलों से आते हैं; जिन्हें भारत के बहु-संख्यक लोग विगत कई शताब्दियों व युगों-युगों से ‘निम्न’ या ‘अछूत’ कहते रहे हैं। और जब भारत में स्वतंत्रता आन्दोलन अपने शिख़र पर थे, तब वही अधिकतर मसीही भाई-बहन स्वयं को बहु-संख्यकों या उच्च-वर्ग की जात-पात, छुआछूत व अन्य सामाजिक बेड़ियों से ही छुटकारा पाने में जुटे हुए थे। उन्हें वास्तव में सामाजिक स्तर पर बहुत अधिक संघर्ष करना पड़ा है। डॉ. जे. कुरुवाचिरा के अनुसार मसीही समुदाय ने पुरुषों, महिलाओं, युवाओं व बच्चों के मन अपने शैक्षणिक संस्थानों के द्वारा परिवर्तित किए हैं, ताकि वे जात-पात, संप्रदाय के प्राचीन दमन तथा अंग्रेज़ों के उप-निवेशिक शासन के अत्याचार सहित प्रत्येक प्रकार के शोषण से पूर्णतया स्वतंत्र हो कर आने वाली पीढ़ियों को कुछ सार्थक दे सकें।

Mehtab-Ud-Din


-- -- मेहताब-उद-दीन

-- [MEHTAB-UD-DIN]



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