मसीही लोगों ने समस्त विश्व में पहुंचाए रामायण, महाभारत, श्रीमद भगवदगीता, चार वेद, उपनिष्द व अन्य प्राचीन भारतीय साहित्य
महत्त्वपूर्ण भारतीय साहित्य का अंग्रेज़ी अनुवाद करने में मसीही लोग सदैव रहे आगे
कितने ग़ैर-मसीही लोगों ने बाईबल, इन्जील अथवा मसीहियत से संबंधित किसी साहित्य को हिन्दी या अन्य भाषाओं में सब से पहले अनुवाद किया था। पवित्र बाईबल का संस्कृत, पंजाबी व अन्य बहुत सी भारतीय भाषाओं में अनुवाद भी सब से पहले एक प्रसिद्ध विदेशी मसीही मिशनरी विलियम केरी ने ही किया था। परन्तु ऐसे देशी व विदेशी मसीही लोगों की संख्या बहुत अधिक है, जिन्होंने प्राचीन हिन्दु साहित्य - जैसे कि चारों वेद (ऋग वेद, साम वेद, यजुर वेद, अथर्व वेद), पवित्र रामायण, श्रीमद भगवदगीता, महाभारत, बौद्ध साहित्य तथा अन्य बहुत से ऐसे प्राचीन व ऐतिहासिक धर्म-ग्रन्थों व महत्त्वपूर्ण भारतीय प्राचीन व मध्ययुगीन साहित्य को अंग्रेज़ी में अनुवाद कर के दुनिया के कोने-कोने तक पहुंचाया था।
जल्लियांवाला बाग़ नरसंहार को मसीही पत्रकार ने बनाया था विश्व-मुद्दा
अंग्रेज़ शासकों की सन् 1919 की जल्लियांवाला बाग़ नरसंहार की घिनावनी घटना भी यहीं भारत में ही कहीं दफ़न हो कर रह जाती तथा समस्त विश्व को इस की भनक भी न पड़ती, यदि इंग्लैण्ड के मसीही पत्रकार बैंजामिन गॉए हौर्नीमैन भारत के तत्कालीन क्रूर ब्रिटिश शसकों से बग़ावत कर के यह समाचार सब से पहले गुप्त रूप से इंग्लैण्ड के समाचार-पत्रों तक न पहुंचाते।
भू-वैज्ञानिक राबर्ट ब्रूस फ़ुट का महत्त्वपूर्ण योगदान
भू-वैज्ञानिक राबर्ट ब्रूस फ़ुट ने 1863 में समस्त विश्व को यह बतलाया था कि हज़ारों वर्ष पूर्व अकेले मिस्र या केवल यूरोप में ही मानवीय सभ्यता नहीं थी, वह भारत में समकालीन रूप से विद्यमान थी। सती प्रथा अपने समय का एक बदनुमा सामाजिक दाग़ था, जिसमें यदि किसी स्त्री के पति का देहांत हो जाता था, तो उसे अपने पति के अंतिम-संस्कार के समय उसकी चिता में जीते-जी स्वयं को अग्नि को भेंट करना पड़ता था।
सती प्रथा व अन्य सामाजिक बुराईयों की समाप्ति
राजा राम मोहन रॉय ने उस समय भारत के गवर्नर जनरल लॉर्ड विलियम बैन्टिक के साथ मिल कर देश में सती प्रथा समाप्त करवाने हेतु 1829 में कानून बनाया था। वह भी लॉर्ड विलियम बैन्टिक ही थे, जिन्होंने 1815 से ले कर 1818 तक अकेले बंगाल में ही 800 स्त्रियों की जानें बचाईं थीं, चाहे स्थानीय तथाकथित धार्मिक नेताओं ने इस बात का ज़ोरदार विरोध किया था तथा उसे भारतीय धार्मिक परंपरा में हस्तक्षेप बताया था। तब विलियम बैन्टिक का सशक्त साथ मसीही मिशनरी विलियम केरी ने भी भारत में ऐसे सुधारों हेतु सदा दिया था। इसके अतिरिक्त नर बलि भी भारत के बहुत से भागों में चलती रही है - ऐसी सामाजिक बुराईयों का मसीही मिशनरियों ने ज़ोरदार विरोध किया। बाल-विवाह तो आम बात थी, कई भारतीय कबीलों में आज भी बच्चों के विवाह होते हैं। वैज्ञानिक सोच वाले मसीही लोगों ने इन सभी बातों का प्रारंभ से ही ज़ोरदार विरोध किया।
और तो और एक समय ऐसा भी था, जब भारत में कुष्ट रोगियों को जान से मारने का रिवाज भी चलता रहा था, ताकि उनका संक्रमण अन्य तन्दरुस्त लोगों को न लग जाए।
भारत में आधुनिक शिक्षा व मैडिकल सेवाओं में तो मसीहियत सदैव रही अग्रणी
भारत में आधुनिक शिक्षा व मैडिकल सेवाओं में तो मसीहियत को सभी जानते ही हैं। विलियम केरी व उनके साथियों ने 1818 तक अपने क्षेत्र में 118 स्कूल खोल दिए थे, जहां केवल अंग्रेज़ी ही नहीं, अपितु भारतीय भाषाएं भी समान रूप से पढ़ाईं जाती थीं। इसके अतिरिक्त अनेक भारतीय भाषाओं के आधुनिक व वैज्ञानिक ढंग से व्याकरण भी मसीही मिशनरियों ने अच्छी तरह से समझ कर तैयार किए थे। अलैग्ज़ैण्डर डफ़ के कलकत्ता पहुंचने के बाद तो शिक्षा का संपूर्ण परिदृश्य ही बदल कर उस समय अत्याधुनिक हो गया था।
भारत में स्त्री शिक्षा में भी मसीही लोगों का वणर्नीय योगदान रहा है। उस समय के सरकारी आंकड़ों के अनुसार 1834 में केवल एक प्रतिशत महिलाएं ही कुछ लिख व पढ़ सकती थीं। वास्तव में तब औरतों को कोई पढ़ाना पसन्द ही नहीं करता था। मसीही लौह-महिला पण्डिता रमाबाई ने तब 1883 में यही बात कैनेडा व अमेरिका में अपने ज़ोरदार भाषणों के ज़रिए उठाई थी व स्वयं भी भारत में सख़्त अकाल के दौरान भूखें को खाना खिलाया था तथा बीमारों की सेवा की थी। तब विदेश मसीही मिशनरियों की बीवियों ने भी भारतीय महिलाओं को शिक्षित करने का बीड़ा उठाया था। परन्तु आज भारत में उनमें से किसी का नाम लेना भी कोई पसन्द नहीं करता - इसके लिए केवल और केवल अंग्रेज़ों का क्रूर शासन व ग़लत पक्षपातपूर्ण नीतियां व कानून ही ज़िम्मेदार है। इसके अतिरिक्त मसीही लोगों की सुस्ती भी बराबर ज़िम्मेदार है, जिन्होंने अंग्रेज़ी भाषा के अतिरिक्त भारत की अन्य स्थानीय भाषाओं में, विशेषतया हिन्दी में इन बातों का प्रचार करने की आवश्यकता ही नहीं समझी, या कहें कि समय निकाल कर हिम्मत ही नहीं की। भारत में ऐसे सुधार करने के कारण ही ऐसे लोगों ने मसीहियत का ज़ोरदार विरोध किया, जिनकी धार्मिक आधार पर चलने वाली आजीविका ख़तरे में पड़ गई थी।
भारत में कुछ बिटिश गवर्नर जनरलों की भूमिका भी रही वणर्नीय
ब्रिटिश गवर्नर जनरल (1773-1785) वारेन हेस्टिंग्ज़ ने श्रीमद भगवदगीता की पहले अंग्रेज़ी अनुवाद की भूमिका बेहद चाव से लिखी थी। लॉर्ड डल्हौज़ी के कार्यकाल (1848-1856) के दौरान 1853 में भारत में पहली बार रेल-गाड़ी दौड़ी थी। इसी प्रकार लॉर्ड कैनिंग के कार्यकाल (1856-1857) के दौरान बम्बई, कलकत्ता व मद्रास में तीन युनिवर्सिटीज़ की स्थापना हुई थी। इसके अतिरिक्त ऐनी बेसैंट जैसे मसीही लोगों की संख्या तो बहुत अधिक है, जिन्होंने अपने अथक प्रयासों से बनारस हिन्दु विश्व विद्यालय व अन्य ऐसे शैक्षणिक संस्थान भारत में खुलवाए थे। डेविड हेयर के योगदान को कौन भुला सकता है (शायद आज-कल के कुछ मुट्ठी भर सांप्रदायिक मूर्ख लोग सत्ता के नशे में यह सब अवश्य भुला सकते हैं)।
भारत में पहली बार प्रैस ले कर आए विदेशी मसीही
इसके अतिरिक्त भारत में प्रैस भी पहली बार विदेशी मसीही लोग ही लेकर आए थे। भारत में प्रिन्टिंग प्रैस पहली बारा 1556 में पुराने गोवा के जैसुइट सेंट पॉल कॉलेज में प्रारंभ हुई थी। भारत में पहला समाचार-पत्र 1780 में जेम्स ऑगस्टस हिकी ने ‘बंगाल ग़ज़ट’ प्रकाशित किया था। फिर उसके बाद बहुत से समाचार पत्र ‘कलकत्ता ग़ज़ट’, ‘मद्रास ग़ज़ट’ (1785) तथा ‘बौम्बे हेरार्ल्ड’ (1789) में प्रकाशित होने लगे थे। और यह तथ्य भी सर्व-विदित है कि भारत के स्वतंत्रता आन्दोलनों में तथा देश को स्वाधीन करवाने में प्रैस का योगदान महत्त्वपूर्ण रहा है। महात्मा गांधी जी जब दक्षिण अफ्ऱीका गए थे, तब भी उन्होंने वहां जा कर अपना एक समाचार-पत्र ‘इण्डियन ओपीनियन’ चलाया था तथा 1914 में भारत लौट कर भी उन्होंने दो समाचार-पत्र ‘हरिजन’ व ‘यंग इण्डिया’ चलाए थे। क्योंकि वह प्रैस की ताकत को पहचानते व समझते थे।
बौद्ध संस्कृति व साहित्य को यूरोप व समस्त विश्व तक पहुंचाया मसीही लोगों ने
उससे पहले जर्मनी के एक चिकित्सक एंजलबर्ट कैंपफ़र ने 1683 से लेकर 1695 तके पर्सिया, थाईलैण्ड, जापान एवं जावा की व्यापक यात्राएं की थीं। उन्होंने एशिया की बौद्ध संस्कृति के बारे में बहुत कुछ लिखा था, जो उनके मरणोपरांत प्रकाशित हुआ था। वहीं से यूरोपियन देशों को बुद्ध धर्म के बारे में अधिक जानकारी पहली बार मिल पाई थी।
इटली से तिब्बत आए पहले मसीही मिशनरी कैपुचिन फ्ऱांसेस्को ओरेज़ियो डैला पैना 16 वर्षों तक ल्हासा में रहे थे तथा उन्होंने 35,000 शब्दों के एक तिब्बती शब्दकोष (डिक्शनरी) का संकलन किया था। इसी प्रकार 1691 में साईमन डी ला लूबेरे तथा 1776 में पादरी मारिया परकोटो ने भी बौद्ध साहित्य का अनुवाद पहली बार अंग्रेज़ी में किया था।
हिन्दु धार्मिक ग्रन्थों व अन्य साहित्य को दुनिया के कोने-कोने तक पहुंचाया मसीही अनुवादकों ने
राल्फ़ थॉमस हौचकिन ग्रिफ़िथ ने हिन्दु धर्म के चार प्रमुख वेद, पवित्र रामायण व कालीदास के कुमार संभव का पहली बार विशुद्ध अंग्रेज़ी अनुवाद किया था। तभी ऐसे प्राचीन भारतीय धार्मिक ग्रन्थों व अन्य साहित्य का प्रचार व पासार समस्त विश्व में हो पाया था। उपनिष्दों का अंग्रेज़ी अनुवाद पैट्रिक ओलीविले ने किया था। महाभारत का अंग्रेज़ी अनुवाद जे.ए.बी. वान बुईटेनेन ने किया था। डबल्यू जे. जॉन्सन द्वारा किए गए श्रीमद भगवत गीता के अंग्रेज़ी अनुवाद को सर्व-मान्यता प्राप्त है। इसी प्रकार ‘भगवान शिव के गीतः ईश्वर गीत/(गीता)’ का अनुवाद ऐण्ड्रयू जे. निकोलसन ने किया था। भगवान श्री विष्णु के नियमों तथा मनु-स्मृति व उनकी आचार संहिताओं व नियमों का अंग्रेज़ी अनुवाद पैट्रिक ओलीविले ने किया था। मसीही लोगों ने यह सब निःस्वार्थ कार्य बिना किसी लोभ व लालच के किए।
भगवान गौतम बुद्ध के धर्म-सूत्र का अनुवाद भी पैट्रिक ओलीविले ने किया था।
सर अलैग्ज़ैण्डर कनिंघम ने सारनाथ में ढूंढे बौद्ध मन्दिर
सर अलैग्ज़ैण्डर कनिंघम ने उत्तर भारत के अनेक खण्डहरों में पुरातत्त्व अनुसंधान किए थे। उन्होंने ही सारनाथ में खुदाई करके बहुत से ऐतिहासिक बौद्ध मन्दिर ढूंढ निकाले थे और फिर वहां पर मौजूद चित्रों की ड्राइंग्स भी तैयार की थीं।
इसी प्रकार भारतीय पुरातत्त्व विभाग के महानिदेशक सर जॉन मार्शल ने 1902 में समस्त भारत में मौजूद प्राचीन इमारतों व स्मारकों को संभालने व संरक्षित करने के अथक प्रयास किए थे। भारत में इस समय (2014 के बाद से 2020 में यह निबंध लिखे जाने तक) सक्रिय सांप्रदायिक मूर्ख, जो सदैव मसीहियत को अपने निशाने पर लेते रहते हैं, थोड़ा सोच कर देखें (यदि उनके पास उल्टी सोच विकसित करने के बाद थोड़ा-बहुत दिमाग़ बचा हो) कि मसीही लोगों को भारत में यह सब करने की क्या आवश्यकता थी।
वैज्ञानिक अनुसंधान में मसीही लोग सदैव अग्रणी
इसके अतिरिक्त आज हम बसों, गाड़ियों, बिजली, मोबाईल फ़ोन, इन्टरनैट से लेकर असंख्य अत्याधुनिक उपकरणों व वैज्ञानिक खोज व अनुसंधान करने में सब से अधिक संख्या मसीही समुदाय की ही है परन्तु फिर भी किसी मसीही ने अपना बड़प्पन दिखलाने के लिए कभी ऐसी उपलब्ध्यिों का अहंकार नहीं किया। क्योंकि जब हम इसी समाज में जन्म लेते हैं, तो बड़े हो कर समाज में अपना योगदान किसी न किसी प्रकार से तो डालना ही होता है; चाहे कोई नई खोज व नवाचार (इनोवेशन) करके ऐसा किया जाए तथा चाहे कुछ टुच्चे पत्रकारों की तरह केवल धन के लालच के कारण दो-कौड़ी के नेताओं (नेता चाहे सत्तासीन हों या विपक्ष में) के तलवे चाट चाटुकारिता कर के व देश व समाज में सांप्रदायिक घृणा फैलाने का नकारात्मक योगदान डाला जाए, यह तो प्रत्येक मानव की अन्दरूनी वास्तविक संस्कृति व उसकी परवरिश के साथ उसके अभिभावकों व शैक्षणिक संस्थानों व अध्यापकों की गुणवत्ता पर निर्भर करता है।
दलितों को मसीहियत ने दिलवाया संपूर्ण मान-सम्मान
इसके अतिरिक्त मसीहियत ने उन दलित लोगों को सदा अपने सीने से लगाया, जिन्हें भारत के बहुसंख्यकों ने सदा ‘नीच, शूद्र’ व अन्य बहुत से आपत्तिजनक शब्दों से संबोधित किया। मनु-स्मृति के अनुसार यदि कोई दलित कभी भूले से पवित्र रामायण या अन्य धार्मिक पाठ को सुन लेता था, तो उसके कानों में सिक्का (लैड्ड) घोल कर डाल दिया जाता था, ताकि वह भविष्य में ऐसी ‘ग़लती’ न कर पाए। इसके अतिरिक्त दलितों को मन्दिरों में जाने की इजाज़त नहीं थी परन्तु जब वही दलित लोग अपनी स्वेच्छा से मसीही बनने लगे, तो धर्म के ठेकेदारों को तकलीफ़ होने लगी। दरअसल, मसीही दलितों को चर्च व मसीही क्लीसिया में संपूर्ण मान-सम्मान मिलता था और आज भी मिलता है तथा भविष्य में भी सदा मिलता रहेगा।
-- -- मेहताब-उद-दीन -- [MEHTAB-UD-DIN]
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