...तो इस लिए भारत में कभी मसीहियत को अधिक नहीं फैला पाए विदेशी मिशनरी
भारत की स्थानीय समस्याओं का हल ढूंढा मसीही मिशनरियों ने
17वीं से 20वीं शताब्दी के दौरान अर्थात उन 400 वर्षों में असंख्य विदेशी मसीही मिशनरी भारत आते रहे। भारत में आते तो इसी उद्देश्य से थे कि वे यीशु मसीह का सुसमाचार लोगों को सुनाएंगे - क्योंकि उनका पहला दायित्त्च तो यही हुआ करता था परतु जब वे भारत में आ कर यहां के सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक एवं सांस्कृतिक परिस्थितियों की विभिन्न पर्तों को देखते व अनुभव करते थे, तो उन में से 90 प्रतिशत मसीही मिशनरी स्थानीय लोगों की असंख्य समस्याओं का कोई न कोई समाधान करने में जुट जाया करते थे। तब उनके लिए यीशु मसीह का सुसमाचार विभिन्न समस्याओं से जूझ रहे आम लोगों को थोड़ी तसल्ली देने तथा कोई उदाहरण देने के ही काम आता था परन्तु उनका पहला ध्यान किसी न किसी प्रकार से स्थानीय लोगों की समस्याओं का कोई हल ढूंढने की ओर ही लगा रहता था। वे कई वर्षों तक भारतीय समाज में निःस्वार्थ सेवा-कार्य करते रहते थे। उसी समय के दौरान कुछ लोग उन के सन्देशों से प्रभावित हो कर स्वेच्छापूर्वक सदा के लिए यीशु मसीह को अपना भी लिया करते थे।
धर्म-परिवर्तन के आरोपों पर कभी प्रतिक्रम प्रकट नहीं किया भारतीय समुदाय ने
मसीही धर्म अपनाने हेतु विदेशी मसीही मिशनरियों ने कभी किसी के साथ ज़ोर-ज़बरदस्ती नहीं की। लेकिन आज के कुछ कम-अकल लोग बिना मतलब मसीही मिशनरियों पर धर्म-परिवर्तन के आरोप लगाते रहते हैं परन्तु भारत का मसीही समुदाय कभी ऐसे आरोप लगाने वालों पर कोई प्रतिक्रिया ही व्यक्त नहीं करता। ऐसा केवल इसी लिए है क्योंकि हमारे उद्धारकर्ता यीशु मसीह ने हमें केवल अज्ञानियों को क्षमा करने का ही सबक सिखलाया है। इसी लिए मसीही समुदाय ऐसी बातों का कभी अधिक जवाब नहीं देता परन्तु इस से अज्ञानी तथा कट्टड़पंथी व उनके चमचे हम मसीही लोगों को कायर समझ लेते हैं जबकि हमारा बुनियादी सिद्धांत ही अज्ञानियों को क्षमा करना है।
भारत में कभी अधिक सफ़ल नहीं हो पाए मसीही मिशनरी
परन्तु जो 10 प्रतिशत मसीही मिशनरी केवल अपना ध्यान प्रचार की ओर ही लगाया करते थे, उन्हें भारत में कुछ अधिक सफ़लता कभी नहीं मिल पाया करती थी। क्योंकि एक तो इस देश में कई शताब्दियों से जाति-पाति, वर्णों के भेदभाव चले आ रहे थे, जिन्हें एकदम से तोड़ना बहुत कठिन था। वे भेदभाव तो आज तक भी चले आ रहे हैं, चाहे उनकी तीक्षणता अब कुछ कम हो गई है परन्तु अस्पृश्यता अर्थात छूत-छात बहुत अधिक माना जाता रहा है। गांवों व नगरों की गलियों एवं सड़कों पर 60 से 70 लाख साधु-सन्यासी घूमते रहते थे, जिनका कुछ आध्यात्मिक योगदान भले ही होता होगा, परन्तु इसके अतिरिक्त उनका समाज में कुछ और योगदान नहीं हुआ करता था।
आम बहु-संख्यक लोग 33 करोड़ से भी अधिक देवी-देवताओं को मानते थे/हैं। उनकी तीर्थ-यात्राओं की संख्या बहुत अधिक हुआ करती थी। पुजारी प्रायः लगभग प्रत्येक चरण पर लोगों से अपने हिसाब से मनमानियां करवाया करते थे, पर्दे का रिवाज था, अनेक प्रकार के वहम-भ्रम हुआ करते थे। फिर से सब से अधिक समस्या तो अनपढ़ता की हुआ करती थी और फिर प्रत्येक 50-100 किलोमीटर के पश्चात् भाषा बदल जाया करती थी। महिलाओं को तो कोई अधिकार हुआ ही नहीं करते थे। इस सब के बावजूद आम लोग अपने जीवन में संतुष्ट दिखाई जान पड़ते थे।
विदेशी मिशनरियों हेतु अन्य देशों के मुकाबले भारत में सदा कठिन रहा मसीही प्रचार करना
ऐसे लोगों में आकर अपनी बात कहना एवं एक ‘विदेशी धर्म’ का प्रचार करना कोई आसान बात नहीं हुआ करती थी। इसी लिए उन मिशनरियों को अधिकतर पहले एक-दो वर्ष तो लोगों की स्थानीय समस्याएं समझने में ही निकल जाया करते थे। लोगों को इस्रायली उदाहरणें नहीं, अपितु भारतीय या एशियाई संदर्भ में बातें समझानी पड़ती थीं। 20वीं शताब्दी के प्रारंभ में भारत के पढ़े-लिखे लोगों ने यदि कभी यीशु मसीह की बात करनी होती थी, तो वे पहले सी.एफ.एण्ड्रयूज़ एवं ई. स्टैन्ले जोन्स जैसे मिशनरियों की उदाहरणें दिया करते थे - क्योंकि वे यीशु मसीह की बातों को सदा भारतीय परिवेश में ही समझाया करते थे। दूसरे किसी देश में मसीही मिशनरियों को कभी इतनी अधिक समस्याओं का सामना नहीं करना पड़ता था क्योंकि वहां पर इतनी अधिक जातियों, भाषाओं इत्यादि जैसा कोई मुद्दा नहीं हुआ करता था।
-- -- मेहताब-उद-दीन -- [MEHTAB-UD-DIN]
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