भारत में विदेशियों के आगमन से धीरे-धीरे होता गया मसीहियत का पासार
दक्षिण भारत में एक साथ सक्रिय हुईं अनेक मसीही मिशनें
भारत के पश्चिमी तटों पर मसीही मिशनरियों की गतिविधियां बड़े स्तर पर चलती रहीं और बड़ी संख्या में लोग यीशु मसीह को ग्रहण करते रहे। इन मिशनिरयों का साथ चौल, बम्बई, सालसेटे, बस्सीन, दमन एवं दीव तथा मायलापुर के सैन थोम के साथ-साथ बंगाल के लोगों ने कुछ अधिक दिया। दक्षिण ज़िलों के मदुरा क्षेत्र में जैसुइट मिशन अत्यंत लोकप्रिय थी। इसका पासार कृष्णा नदी तक था। मालाबार तट पर ‘मिशन ऑफ़ कोचीन’ के नेतृत्व में भी बहुत से लोग मसीही समुदाय में शामिल हुए थे। 1570 ईसवी के आस-पास उत्तर के आगरा एवं लाहौर तथा 1624 में तिब्बत में भी अनेक मसीही मिशनों की स्थापना की गई थी। यहां यह बात वर्णनीय है कि विदेशी मसीही मिशनरियों ने अपनी गतिविधियां भारत के तटवर्ती क्षेत्रों में अधिक चलाईं। उत्तर में वे अधिक अन्दर अर्थात दूर-दराज़ के क्षेत्रों तक नहीं गए। फिर जब पुर्तगाली शक्ति कम होने लगी, तो अन्य बस्तीवादी शक्तियों जैसे कि डच एवं ब्रिटिश मसीही संगठनों ने अपना प्रभाव बढ़ा दिया।
सीरियन मसीहियत का रहा अधिक प्रभाव
सीएनआई सैमिनरी चर्च, सहारनपुर (उत्तर प्रदेश)
भारत के केरल व दक्षिण भारत के अन्य क्षेत्रों में रहने वाले सीरियन मसीही समुदाय ने अपने संबंध मैसेपोटामिया के एडेस्सा स्थित नैस्टोरियन धार्मिक संगठनों से विकसित कर लिए। सीरियाई मसीही लोगों के रीति-रिवाज पहले यहूदी धार्मिक रीतियों से बहुत अधिक मिलते थे। पुर्तगाली शासकों ने 17वीं शताब्दी के मध्य में सीरियन मसीही समुदाय पर काफ़ी अत्याचार किए। सीरियन मसीही लोगों ने बहुत से विदेशी मसीही संगठनों से सहायता मांगी। 1665 में एन्टियोशीन सीरियन पैट्रीआर्क ने मैट्रोपॉलिटन मार ग्रैगरीज़ ऑफ़ जेरूसलेम को भारत भेजा। उन्होंने मारथोमा-प्रथम को बिशप नियुक्त किया।
पहली बार 1705 में आए भारत में प्रोटैस्टैन्ट मिशनरी
भारत में प्रोटैस्टैन्ट मिशनरी भारत में पहली बार 1705 में तामिल नाडू स्थित डैनिश बस्ती त्रैक्यूबार (जिसे आज तरंगमबाड़ी के नाम से जाना जाता है) में आए थे। वे जर्मनी के दो लूथरन पादरी बार्थलोमौस ज़ीजेनबाग तथा हीनरिच प्लूटशो थे। उन्होंने बाईबल का अनुवाद तामिल भाषा में किया था। पहले तो उन्हें अपने कार्यों में कोई अधिक सफ़लता नहीं मिली। परन्तु धीरे-धीरे उनकी प्रचार-गतिविधियों का पासार मद्रास, कुड्डालोर एवं तन्जौर तक हो गया।
प्रोटैस्टैन्ट मिशन के चर्च सीएनआई व सीएसआई
आंध्र प्रदेश में पहली प्रोटैस्टैन्ट मिशन ‘लन्दन मिशनरी सोसायटी’ थी, जिसने 1805 में विशाखापटनम में अपना कार्य प्रारंभ किया था। 1833 में प्लाईमाऊथ ब्रैदरन मिशनरी एन्थोनी नौरिस ग्रोव्ज़ भारत आए थे। उन्होंने अपने देहांत अर्थात 1852 तक गोदावरी डैल्टा क्षेत्र में मसीही-प्रचार कार्य किए थे। आंध्र प्रदेश में पहले लूथरन मिशनरी जौन क्रिस्चियन फ्ऱैडरिक हेयर थे। उन्होंने 1842 में गुन्टूर मिशन की स्थापना की थी। उन्हें पैनसिलवेनिया के चर्च के साथ-साथ फ़ारेन मिशन बोर्ड ऑफ़ दि जनरल सिनोड का समर्थन भी प्राप्त था। ब्रिटिश सरकारी अधिकारी भी उन्हें उत्साहित करते थे। उन्होंने गुन्टूर क्षेत्र में अनेक अस्पताल एवं स्कूलों का ताना-बाना भी बिछाया था।
एंग्लिकन कम्यूनियन के साथ कार्यरत एक मिशन सोसायटी ‘चर्च मिशन सोसायटी’ ने पहले अपने मिशनरी मद्रास भेजे थे, 1816 में वे त्रावनकोर भी गए थे। इसी मिशन के उत्तराधिकारी इस समय ‘चर्च ऑफ़ नॉर्थ इण्डिया’ (सी.एन.आई.) एवं ‘चर्च ऑफ़ साऊथ इण्डिया’ (सी.एस.आई.) चला रहे हैं।
अमेरिकन बैप्टिस्ट मिशनरी रहे उत्तर-पूर्वी भारत में सक्रिय
19वीं शताब्दी के दौरान अमेरिकन बैप्टिस्ट मिशनरियों ने उत्तर-पूर्वी भारत में बहुत से लोगों को यीशु मसीह के अनुयायी बनाने में सहायता की। 1876 में डॉ. ई. डबल्यू क्लार्क सबसे पहले नागालैण्ड के एक गांव में रहने हेतु आए थे। चार वर्षों के पश्चात् उनके असमी सहायक गोधूला ने अपने प्रभाव द्वारा नागालैण्ड के लोगों को मसीही समुदाय में शामिल करने का कार्य किया। पादरी ए.एफ़. मेरिल 1928 में अपनी पत्नी के साथ भारत आए थे एवं उन्होंने गारो पहाड़ी क्षेत्र के दक्षिण-पूर्वी भाग में प्रचार प्रारंभ किया। इसी प्रकार पादरी एम.जे. चान्स ने भी अपनी पत्नी के साथ 1950 से लेकर 1956 तक गोलाघाट में रह कर नागा एवं गारो कबाईली क्षेत्रों में कार्य किए थे। उन्हीं कार्यों की बदौलत आज उत्तर-पूर्वी भारत के नागा, खासी, कुकी एवं मिज़ो कबीलों में मसीही जन-संख्या काफी अधिक है।
विदेशी मसीही मिशनरियों को वीज़ा मिलना अब कुछ मुश्किल
जेहोवा’ज़ विटनैसज़ ने 1905 में अपनी गतिविधियां भारत में प्रारंभ की थीं, जब एक भारतीय मसीही श्रद्धालू प्रसिद्ध अमेरिकन पादरी चार्ल्स तेज़ रस्सेल (16 फ़रवरी, 1852-31 अक्तूबर, 1916) के नेतृत्व में बाईबल अध्ययन सीख कर टैक्सास से भारत लौटा था।
‘चर्च ऑफ़ जीसस क्राईस्ट ऑफ़ लैटर-डेअ सेंट्स’ (एल.डी.एस. चर्च) के दो मौरमन मिशनरी ह्यू फ़िण्डले एं जोसेफ़ रिचर्डस पहली बार 1850 के दश्क में क्रमशः बम्बई एवं पुणे में आए थे, परन्तु उन्हें अधिक सफ़लता नहीं मिल पाई थी। आज भारत में दो एल.डी.एस. मिशनें - बंगलौर मिशन तथा नई दिल्ली मिशन हैं। भारत में क्योंकि चर्च का विकास तो हो रहा है परन्तु विदेशी मिशनरियों के भारत आने पर कई प्रकार के प्रतिबन्ध हैं, जिसके कारण उन्हें अब वीज़ा नहीं मिल पाता। इसी लिए अब भारतीय मिशनों में अधिकतर देश के लोग ही कार्यरत हैं। 2015 में एल.डी.एस. चर्च की समस्त भारत में 43 क्लीसियाएं थीं, जिनके 12 हज़ार सदस्य थे।
-- -- मेहताब-उद-दीन -- [MEHTAB-UD-DIN]
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