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1498 से 18वीं शताबदी तक विदेशियों का भारत आगमन - एक अवलोकन



 




 


पुर्तगाली खोजी यात्री वास्को डा गामा का भारत आगमन

पुर्तगाली मसीही मिशनरियों का भारत आगमन 20 मई, 1498 को पुर्तगाली खोजी यात्री वास्को डा गामा के साथ कोज़ीकोड (केरल) के समीप कप्पाड़ में पहुंचे नव-प्रेरितों (नियो-ऐपौसल्ज़) से प्रारंभ हुआ था। वास्तव में वे खोजी यात्री कुछ पुराने मसीही राष्ट्रों या समुदायों के साथ मुस्लिम-विरोधी गठबंधन बनाने के अभियान पर थे। फिर पुर्तगाली राजा को दक्षिण भारत की धरती में पैदा होने वाले विभिन्न खाद्य-मसालों का आयात बढ़ाने का लालच भी था। वास्को डा गामा और पुर्तगाली मिशनरियों ने पाया कि यहां पर मालाबार क्षेत्र में बड़ी संख्या में सीरियन क्रिस्चियन्ज़ मौजूद थे और तब भारत में उन्हीं का ही चर्च सब से बड़ा था। पहले सीरियन मसीही लोगों ने पुर्तगाली मिशनरियों ने पूर्णतया मित्रतापूर्ण व्यवहार दिखाया था। इसी लिए उनके मध्य उपहारों का आदान-प्रदान भी हुआ था और दोनों पक्ष एक ही धर्म के होने के कारण एक-दूसरे को देख कर अत्यंत प्रसन्न हुए थे।


पुर्तगालियों ने भारत में ऐसे पांव जमाने प्रारंभ किए

Old Portguese House in Goa गोवा में पुर्तगालियों का एक पुराना मकान। चित्रः Alamy Stock Photo

फिर दूसरी बार जब कैप्टन पैड्रो अल्वारेस कैबरल के नेतृत्व में पुर्तगाली यात्री बड़ी संख्या में 13 बड़े समुद्री जहाज़ों पर दक्षिण भारत में वापिस आए, तो उनके साथ 18 पादरी साहिबान भी थे। उन्होंने 26 नवम्बर, 1500 को केरल की कोचीन बन्दरगाह पर लंगर डाले थे। कमाण्डर कैबरल ने अपनी मीठी बातों से शीघ्रतया ही कोचीन के राजा का दिल जीत लिया था। राजा ने चार पादरियों को कोचीन के आस-पास रहने वाले मसीही समुदाय के बीच मसीही प्रचार व प्रार्थनाएं करने की स्वीकृति दे दी। फिर उसके पश्चात् भारत के पहले पुर्तगााली वॉयसरॉय डॉम फ्ऱांसिस्को डी अल्मेडा ने कोची राजा से दो नए चर्चेज़ का निर्माण करने की अनुमति भी ले ली। तब दो गिर्जाघर स्थापित हुए - एक 1505 में सैन्टा क्रूज़ बैसिलिका तथा 1506 में सेंट फ्ऱांसिस चर्च। इनका निर्माण करने के लिए बड़े सुन्दर पत्थरों एवं मोर्टार (ईंटों एवं पत्थरों एक स्थान पर जमाने हेतु चूना, सीमिन्ट, रेता, पानी के मिश्रण) का प्रयोग किया गया। तब राजा के शाही महल के अतिरिक्त ऐसा भवन बनाने के बारे में कोई आम व्यक्ति तो सोच भी नहीं सकता था; इसी लिए ऐसे भवन बनाने का स्थानीय स्तर पर कुछ विरोध भी हुआ था।


दक्षिण भारत के मसीही हुए पुर्तगाल के अधीन

इस प्रकार, 16वीं शताब्दी के प्रारंभ में ही दक्षिण भारत के पूर्वी क्षेत्र में रहने वाले लगभग अधिकतर मसीही समुदाय लिस्बन (पुर्तगाल की राजधानी) के आर्कडायोसीज़ के अंतर्गत आ गए थे। 12 जून, 1514 को कोचीन एवं गोवा दो ऐसे प्रमुख मिशन स्टेशनों के तौर पर स्थापित हो गए थे, जो पुर्तगाल के मडीरा क्षेत्र में डायोसीज़ ऑफ़ फुंचल के अधीन थे। 1534 ई. में पोप जॉन पौल-तृतीय ने फुंचल को आर्कडायोसीज़ तथा गोवा को सफ्ऱागन (असिसटैंट बिशप) के तौर पर स्थापित घोषित कर दिया था।

चार दश्कों के समृद्ध कारोबारी व्यवसाय के उपरान्त पुर्तगाली मिशनरियों ने 1540 में स्थानीय लोगों में मसीही प्रचार व पासार की गतिविधियों में बढ़ोतरी कर दी, जिसके कारण बहुत से नए लोग भी मसीही समुदाय में शामिल होने लगे। तब जैसुइट पादरी एवं मिशनरी सेंट फ्ऱांसिस ज़ेवियर ने दक्षिण भारत के पश्चिमी तटों पर अपना आधार मज़बूत कर लिया। पुर्तगाली बस्तीवादी सरकार ने मिशन को अपना पूर्ण समर्थन दिया तथा नया मसीही बप्तिसमा लेने वाले लोगों एवं परिवारों को चावल के साथ-साथ अच्छे पद भी दिए जाते थे। उन्हें अपने पुराने धर्म को मानते रहने की भी स्वतंत्रता दी गई थी।


यूरोपियन मसीही लोगों में ‘इनक्वीज़िशन’ का दौर

उस समय यूरोप के बहुत से देशों जैसे स्पेन एवं पुर्तगाल में ‘इनक्वीज़िशन’ का दौर चल रहा था। उस दौर में कट्टर मसीही लोग ऐसे मसीही लोगों की जांच करवाया करते थे कि क्या वे सही ढंग से मसीहियत को मानते भी हैं या नहीं। 12वीं शताब्दी ईसवी से लेकर 19वीं शताब्दी ईसवी तक यह दौर चलता रहा था। तब अधिकतर कैथोलिक मसीही शासक जांच करवाया करते थे कि कहीं नए मसीही बनने वाले अब भी अपने पुराने धर्म को तो नहीं मान रहे।


पुर्तगाल के शासकों ने गोवा के मसीही समुदायों पर ढाए अत्याचार

पुर्तगाल के शासकों ने इसी मामले को लेकर गोवा में भी ख़ूब उत्पात मचाया था और अत्याचार ढाए थे। यदि कोई ऐसा व्यक्ति या परिवार पाया जाता था, जो पूर्णतया कैथोलिक रीतियों के साथ मसीही व्यवहार नहीं कर रहा होता था, उसे मौत के घाट उतार दिया जाता था या जेल में डाल दिया जाता था। आज यदि हम देखें तो हम यही सोचने को मजबूर होते हैं कि वे कैसे शासक थे, जो हिंसक ढंग से यीशु मसीह का अहिंसा के सिद्धांत का पासार करना चाह रहे थे। ऐसे ही लोगों के कारण मसीहियत बदनाम होती रही है।


पुर्तगाल से बहुत से नए मसीही आए थे भारत

पुर्तगाल में 1540 में ‘इनक्वीज़िशन’ के कारण ही पुर्तगाल से बड़ी संख्या में नए मसीही हिजरत कर के भारत आ गए थे। उनमें से अधिकतर क्रिप्टो-यहूदी थे, जो यहूदी धर्म को त्याग कर मसीही बने थे परन्तु चोरी-छिपे अपने पुरानी यहूदी धार्मिक रीतियों व परंपराओं का पालन किया करते थे। कट्टर कैथोलिक मसीही शासक तब उन्हें मसीहियत के लिए ख़तरा मानते थे।

यहां वर्णनीय है कि उसी समय उत्तर भारत में ‘महान्’ मुग़ल सम्राट अकबर (1556-1605) का राज्य चल रहा था। महाराजा अकबर क्योंकि सभी धर्मों के लोगों को अपने साथ लेकर चलना चाहता था; इसी लिए उसने सभी धर्मों की कुछ चुनिन्दा बातों को लेकर अपना एक अलग धर्म ‘दीन-ए-इलाही’ 1582 में चलाया था और फ़तेहपुर सीकरी में एक विशेष इबादतखाना (प्रार्थना-गृह) स्थापित करवाया था। वैसे तो ‘दीन-ए-इलाही’ में अधिकतर बातें इस्लाम एवं हिन्दु धर्म की ही थीं परन्तु उस में मसीहियत, जैन धर्म एवं यहूदी धर्म के कुछ सिद्धांतों को भी सम्मिलत किया गया था। उस शाही प्रार्थना-गृह में रोडोल्फ़ो एक्वावीवा तथा फ्ऱासिस्को हैनरिक्स नाम के दो जैसुइट पादरी भी हुआ करते थे।


16वीं शताब्दी में उत्तरी कोंकण में बढ़ा मसीहियत का प्रभाव

उत्तरी कोंकण में मसीहियत का प्रभाव 16वीं शताब्दी में पुर्तगालियों की धार्मिक गतिविधियों से बढ़ा था। फ्ऱांसीसी मसीही प्रचारक पादरी जॉर्डानस कैटालानी (जो मूल रूप से दक्षिण-पश्चिमी फ्ऱांस से थे) ने महाराष्ट्र के थाना क्षेत्र में अपना प्रचार बड़े स्तर पर किया था। तब महाराष्ट्र के उत्तरी कोंकण क्षेत्र के मसीही समुदायों को ‘पुर्तगाली मसीही’ नाम से जाना जाता था परन्तु उन्होंने महारानी विक्टोरिया की स्वर्ण जयंती के सुअवसर पर अपने उस नाम को बदल कर ‘ईस्ट इण्डियन्ज़’ रख लिया था। मराठी मसीही प्रोटैस्टैंट है तथा वे ईस्ट इण्डियन मसीही समुदायों से काफ़ी भिन्न हैं क्योंकि ईस्ट इण्डियन अधिकतर रोमन कैथोलिक हैं। मराठी मसीही लोग अधिकतर अहमदनगर, सोलापुर, पुणे एवं औरंगाबाद में रहते हैं। उनके पूर्वजों ने अमेरिकन-मराठी मिशन - एस.पी.जी. मिशन तथा चर्च ऑफ़ इंग्लैण्ड की चर्च मिशन सोसायटी के प्रभाव से 18वीं शताब्दी के प्रारंभ में यीशु मसीह को सदा के लिए ग्रहण कर लिया था। प्रसिद्ध ब्रिटिश मसीही मिशनरी विलियम केरी ने बाईबल का मराठी भाषा में अनुवाद करने में मुख्य भूमिका निभाई थी।


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