विदेशी मसीही प्रचारकों की अंग्रेज़ी शिक्षा से राममोहन रॉय, दयानंद सरस्वती व अन्य हुए जागृत
अंग्रेज़ मसीही प्रचारक व पश्चिमी शिक्षा का पासार
कोलकाता स्थित बिशप’स कॉलेज में मसीही इतिहास के भूतपूर्व लैक्चरार श्रीमति अतुला इमसौंग अपने एक पेपर में लिखती हैं,‘‘मसीहीयत अर्थात ईसाईयत एवं पश्चिमी शिक्षा आपस में जुड़ी रही हैं। 1793 में विलियम केरी तथा 1930 में अलैग्ज़ैण्डर डफ़ के कोलकाता आने (जब कि उससे पूर्व सन् 1800 में स्कॉटलैण्ड से भारत आए डेविड हेयर ने बंगाली क्षेत्रों में शिक्षा के क्षेत्र में क्रांति ला दी थी, परन्तु श्रीमति अतुला उनका ज़िक्र करना भूल गईं) के पश्चात् भारत में पश्चिमी शिक्षा का पासार हुआ।
प्रचारकों ने ही खोले प्रारंभिक स्कूल
गोरे मसीही प्रचारकों ने देखा कि भारत में तो अत्यंत पछड़ापन है व अनपढ़ता छाई हुई है। उनसे यह सब नहीं देखा गया। जब आपको कुछ अधिक आता है, तो निश्चित तौर पर अपना ज्ञान साझा करने हेतु मचल उठते हैं। अतः उन्होंने अन्य धर्मों के युवाओं को पढ़ाने के लिए अनेक स्कूल खोले और प्रारंभिक स्कूल/विद्यालय इन्हीं प्रचारकों ने खोले; कयोंकि व गांव-गांव व घर-घर जा कर सभी का हाल-चाल जाना करते थे - जो आज भी कोई नेता या अधिकारीगण (ऐसा करना जिनका काम है) ऐसा नहीं करता। प्रचारकों को सभी स्थानीय समस्याओं की पूर्ण जानकारी हुआ करती थी और वे उनके समाधान भी निकाला करते थे।
जागरूक होने लगे भारतीय लोग
उन्होंने जहां स्थानीय भाषाओं को पढ़ाने के ठोस प्रबन्ध किए, वहीं उन्होंने अंग्रेज़ी भाषा को भी अपने स्कूलों में अनिवार्य विषय के तौर पर पढ़ाया। इससे भारत देश के लोग जागरूक होने लगे, उन्हें भारत के अतिरिक्त विश्व की अन्य सभ्यताओं की भी समझ आने लगी।
प्राचीन वहम, भ्रम-भ्रांतियां, फ़िज़ूल की रीतियां, सामाजिक बुराईयां समाप्त होने लगीं
प्राचीन समयों से देश में चले आ रहे वहम, भ्रम, भांतियां व फ़िज़ूल की रीतियां, सामाजिक बुराईयां समाप्त होने लगीं। इस प्रकार देश में सामाजिक-धार्मिक सुधार प्रारंभ हुए। अधिक पढ़े-लिखे भारतियों को अंग्रेज़ी शिक्षा ने पश्चिमी उदारवाद के विचार को समझने के असंख्य अवसर प्रदान किए। जब उन्होंने स्वतंत्रता हेतु अमेरिका में लड़े गए युद्धों व विभिन्न राष्ट्रीय आन्दोलनों के बारे में पढ़ा, उन्होंने फ्ऱांसीसी क्रांति संबंधी पूर्ण जानकारी प्राप्त की।
प्रारंभिक स्कूलों की बदौलत भारतीय बच्चे होने लगे राष्ट्रवाद के प्रति जागृत व प्रेरित
इस प्रकार वे भारत-वर्ष में भी राष्ट्रवाद की भावना उत्पन्न करने हेतु प्रेरित व जागृत हुए। इस कार्य में भी मसीही समुदाय ही सदा आगे रहा (वर्तमान युवा पीढ़ी को ये सब बातें पढ़ाने व समझाने के लिए आज कोई आगे नहीं आ रहा है, इतिहास की पुस्तकों में से मसीही समुदाय के भारत में डाले गए ऐसे विभिन्न योगदानों को जानबूझ कर पक्षपातपूर्ण लेखकों व इतिहासकारों ने मिटा दिया)। इस प्रकार ब्रिटिश औप-निवेशिक राज्य के दौरान भारत में पहले जो लोग विभिन्न भाषाओं की अधिकता के कारण एक-दूसरे से बात नहीं कर पाते थे, तब अंग्रेज़ी भाषा ने उनके लिए एक सशक्त पुल का कार्य किया। इससे भारत में राष्ट्रवाद को फैलाना आसान हो गया।’’
इस प्रकार हम ने देखा कि बहुत से स्थानीय तथा विदेशी मसीही लोगों ने पीछे रह कर भी समूह भारत-वासियों को अपने ढंग से एकजुट करने के महान् कार्य किए।
अंग्रेज़ी शिक्षा द्वारा जागृत राजा राममोहन रॉय ने किया प्राचीन सामाजिक-धार्मिक अभ्यासों का विरोध
19वीं शताब्दी के प्रारंभ से ही भारत में अंग्रेज़ी शिक्षा के माध्यम द्वारा प्राचीन काल से चले आ रहे व उस समय के सामाजिक-धार्मिक अभ्यासों पर प्रश्न उठने प्रारंभ हो गए थे। धर्म एवं समाज पर इस नई भावना का सब से पहले राजा राममोहन रॉय ने प्रतिनिधित्व किया था। उन्होंने विविध देवी-देवताओं की पूजा-आराधना करने का ज़ोरदार विरोध किया तथा केवल एक ही सच्चे परमेश्वर को मानने की धारणा का समर्थन किया। इसी आधार पर उन्होंने 1828 में ब्रह्मो समाज की स्थापना की थी। वह अपने समय के दौरान भारत में प्रचलित सामाजिक-धार्मिक अभ्यासों के विरुद्ध थे।
राजा राममोहन रॉय ने किए मसीही मिशनरियों के साथ मिल कर समाज के लिए अनेक कार्य
राजा राममोहन रॉय ने मसीही मिशनरियों के साथ मिल कर देश के विभिन्न क्षेत्रों में पाए जाने वाले ऐसे अनेक अभ्यासों को बन्द करवाया था। फिर स्वामी दयानन्द सरस्वती ने 1875 में बम्बई में आर्य समाज की स्थापना की थी। वह भी अंग्रेज़ी भाषा व साहित्य के बड़े जानकार थे। उन्होंने भी देश में जाति प्रथा का ज़ोरदार विरोध किया था। उन्होंने ही कहा था कि सभी वेद व अन्य धार्मिक ग्रन्थ पढ़ने का अधिकार केवल ब्राह्मणों को ही नहीं, अपितु सभी को है। इसी प्रकार रामकृष्ण मिशन तथा थ्योसॉफ़ीकल सोसायटी ने भी सुधार लहरें चलाईं। भारत में ये सब अंग्रेज़ी भाषा व पश्चिमी संस्कृति के आगमन के कारण संभव हो पाया था। इन सभी हिन्दु नेताओं ने हिन्दु धर्म की खुल कर महिमा की।
सदा सेवा भावना से ही कल्याण कार्य किए देशी व विदेशी मसीही प्रचारकों ने
हम अधिकतर यही देखते हैं कि दक्षिण भारत के मसीही समुदाय ने भारत के स्वतंत्रता संग्राम में योगदान डाला था और यह सब देख कर कोई भी व्यक्ति यह भी मान सकता है कि ईसाई लोग केवल दक्षिण भारत में ही फल-फूल रहे हैं। परन्तु ऐसा नहीं है; इंग्लैण्ड के मसीही प्रचारकों ने उत्तर भारत में भी ख़ूब काम किए। यहां तक कि वे लोग अपने अन्तिम समय तक यहीं रहे तथा उन्होंने भारतीय ईसाई समुदाय के हर दुःख-सुख में साथ दिया तथा सदा अपने गोरे साथियों व शासकों पर भारत को स्वतंत्र करने हेतु दबाव भी डालते रहे। इन्हीं सभी बातों तथा समूह भारतीयों के राष्ट्रीय आन्दोलनों के चलते आख़िर ब्रिटिश शासकों को 15 अगस्त, 1947 को भारत को आज़ाद करना ही पड़ा। -- -- मेहताब-उद-दीन -- [MEHTAB-UD-DIN] भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन में मसीही समुदाय का योगदान की श्रृंख्ला पर वापिस जाने हेतु यहां क्लिक करें -- [TO KNOW MORE ABOUT - THE ROLE OF CHRISTIANS IN THE FREEDOM OF INDIA -, CLICK HERE]