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1926 में भारत में फैल गई थी अफ़वाह कि गांधी जी गुपचुप बन गए हैं मसीही...



 




 


गांधी जी ने अहमदाबाद के कॉलेज में पढ़ाई थी पवित्र बाईबल

बाथर्स्ट स्टुअर्ट युनिवर्सिटी (ऑस्ट्रेलिया) के डॉ. विलियम डबल्यू एमिलसन ने एक पुस्तक लिखी थी ‘गांधी’ज़ बाईबल’ (गांधी की बाईबल), जिसे ‘इण्डियन सोसायटी फ़ार प्रोमोटिंग क्रिस्चियन नॉलेज’ (आई.एस.पी.सी.के. - मसीही ज्ञान को प्रोत्साहित करने हेतु भारतीय सभा) के पादरी डॉ. आशीश आमोस ने वर्ष 2001 में कश्मीरी गेट, दिल्ली से प्रकाशित किया था। तब से इसके दो संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं और यह पुस्तक अत्यंत लोकप्रिय हुई है। इसे अहमदाबाद, गुजरात स्थित नवजीवन ट्रस्ट (महात्मा गांधी की तथा उनके संबंधी पुस्तकें प्रकाशित करने का अधिकार उसी ट्रस्ट को है। यह ट्रस्ट स्वयं गांधी जी ने 1929 में सुसंस्थापित किया था) की अनुमति से प्रकाशित किया गया था।

Gandhi Ji_Photo By JagranMahatma Gandhi Ji_Photo By Jagran

डॉ. एमिलसन की इसी पुस्तक के अनुसार 1926 में गांधी जी एक वर्ष के लिए भारतीय राजनीति से दूर एकांत में अपने साबरमती आश्रम (जो अहमदाबाद के पास ही स्थित था) में चले गए थे। उन्होंने निर्णय लिया था कि वह अगले 12 माह तक पूर्णतया चुपचाप रह कर आराम करेंगे तथा आश्रम की आवश्यकताओं की पूर्ति करेंगे। तब उनका अधिकतर समय अपने दोनों समाचार पत्रों ‘यंग इण्डिया’ तथा ‘नवजीवन’ को संपादित करने तथा प्रतिदिन की डाक पढ़ने में लगता था। परन्तु अगस्त 1926 में भारत के प्रमुख समाचार-पत्रों ने अचानक गांधी जी के विरुद्ध ज़हर उगलना शुरू कर दिया। उनके विरुद्ध जैसे हंगामा ही खड़ा हो गया; दरअसल गंाधी जी ने तब अहमदाबाद के गुजरात नैश्नल कॉलेज में बाईबल पढ़ाने का निमंत्रण स्वीकार कर लिया था। तब गांधी जी के विरोधियों व आलोचकों ने उन्हें ‘गुप्त रूप से मसीही’ (क्रिस्चियन इन सीक्रेट अर्थात ‘अन्दरखाते ईसाई’) करार दे दिया था। तब भारत के कुछ मूलवादियों को लगता था कि बाईबल का प्रयोग विद्यार्थियों को मसीही बनाने के लिए किया जा रहा है। गांधी जी पर ‘एक मसीही’ होने के आरोप पहले भी लग चुके थे। वह हंस कर ऐसी बातों को टाल दिया करते थे। ख़ैर गांधी जी ने अहमदाबाद के कॉलेज में 20 नवम्बर, 1926 तक प्रत्येक शनिवार (बीच में कुछ शनिवार छूट भी जाया करते थे) को बाईबल पढ़ाई। उसी समय के दौरान चाहे वह प्रतिदिन अपने आश्रम में भगवद गीता पर भाषण दिया करते थे, परन्तु आलोचक कहां मानने वाले थे। गांधी जी ने वे सभी बातें दैनिक ‘यंग इण्डिया’ में कई किस्तों में ‘क्राईम ऑफ़ रीडिंग बाईबल’ (बाईबल पढ़ने का अपराध) प्रकाशित की थीं। इसके अतिरिक्त 3 सितम्बर, 1926 को ‘बौम्बे क्रॉनिकल’ नामक समाचार-पत्र में भी उनके बारे में ‘महात्मा एण्ड दि बाईबल’ (महात्मा एवं बाईबल) नाम से एक विस्तृत लेख प्रकाशित हुआ था। इसके अतिरिक्त उस समय की बातें गांधी जी द्वारा श्री रामेश्वर व जुगल किशोर बिरला को लिखे पत्रों से भी स्पष्ट होती हैं।


गांधी जी मसीही धर्म के गुणों को कहा करते थे ‘मसीहियत की सुन्दरताएं’

गांधी जी ने अपनी ऐसी आलोचनाओं को कभी तूल नहीं दिया, बल्कि वह मसीही धर्म के गुणों को ‘मसीहियत की सुन्दरताएं’ कहा करते थे। और उन्होंने ऐसी आलोचनाओं से उत्पन्न हुई कुछ ऐसी प्रतिक्रियाओं को भी रद्द किया, जिनमें कहा जाने लगा था कि भारत में मसीही धर्म व अल्प-संख्यकों के प्रति असहनशीलता (असहिष्णुता) बढ़ने लगी है।

ऐसा नहीं था कि गांधी जी किसी एक धर्म को ही आदर दिया करते थे, वह सभी धर्मों तथा उनके अनुयायियों एकसमान ढंग से सम्मान किया करते थे। यही उनकी विशेषता थी, जो उन्हें जन-साधारण में लोकप्रिय बनाती थी। वह स्वयं को धर्म का निष्पक्ष विद्यार्थी कहा करते थे। उनका मानना था कि सभी लोगों को अपने स्वयं के धर्म के साथ अन्य सभी धर्मों का अध्ययन एक पवित्र कर्तव्य मान कर अवश्य करना चाहिए, क्योंकि इससे आपका दृष्टिकोण विशाल होता है। इसी लिए गांधी जी ने विश्व के लगभग सभी धर्म-ग्रन्थों को गहन अध्ययन किया था। वह मसीही व अन्य सभी धर्मों के प्रचारकों को भी ऐसी ही सलाह अक्सर दिया करते थे। उनका मानना था कि हमें सभी धर्मों का सम्मान करना चाहिए क्योंकि कोई भी धर्म कभी किसी को कोई ग़लत बात नहीं सिखलाता।


गांधी जी की शिक्षाओं की बदौलत भारत बन पाया एक धर्म-निरपेक्ष राष्ट्र

गांधी जी की ऐसी शिक्षाओं की बदौलत ही आज भारत एक धर्म-निरपेक्ष राष्ट्र बन पाया है। यदि कहीं इस देश में गांधी जी जैसे युग-पुरुष न होते, तो शायद आज यहां की परिस्थितियां, धर्म-निरपेक्षता के संदर्भ में, ऐसी न होतीं जैसी कि आज हैं। गांधी जी आजीवन सदा सच के साथ ही डटे रहे। सत्य बात कहने से वह कभी पीछे नहीं हटते थे। गांधी जी ने 18 अप्रैल, 1921 को गुजरात के नगर गोधरा में एक जन-सभा को संबोधन करते हुए कहा था कि वह किसी ऐसी पुस्तक को ग्रन्थ नहीं मानते, जिसमें किसी अन्य मनुष्य को ‘नीच’ माना गया हो (जैसे कि मनु-शास्त्र में दर्ज है)। उन्होंने कहा था कि ‘‘धर्म-ग्रन्थ भी कभी कारण की शक्ति से दूर नहीं हो सकते। यदि किसी धर्म को व्यापक स्वीकृति चाहिए तो उसे कारण व तर्क की परीक्षा से तो गुज़रना ही होगा।’’


जो बात तर्कपूर्ण व नैतिक आधार पर सही हो, उसे ही मानेंः गांधी जी

गांधी जी का मानना था कि कभी ऐसी किसी बात को ‘ईश्वर का वचन’ नहीं मान लेना चाहिए, जो आपके मन को नैतिक रूप से ठीक न लगे। उनका मानना था कि धर्म-ग्रन्थों में लिखी बातें प्रायः दृष्टान्तों में हुआ करती हैं, उन्हें उनके सही संदर्भ में ही देखा, पढ़ा व समझा जाना चाहिए - उनके अपने हिसाब से शाब्दिक अर्थ नहीं निकाल लेने चाहिएं। वह प्रायः महाकवि तुलसीदास की रामायण में दर्ज एक शलोक (ढोल गंवार सूद्र पसु नारी, सकल ताड़ना के अधिकारी) की उदाहरण दे कर उसकी सही व्याख्या किया करते थे। यदि पहली नज़र से इसे देखा जाए तो इसका शाब्दिक व सीधा अर्थ तो यही निकलता है कि ‘ढोल, गंवार व्यक्ति, शूद्र अर्थात नीच जाति के व्यक्ति, पशु अर्थात जानवर व नारी अर्थात स्त्री सभी को पीटा जाना चाहिए’; परन्तु गांधी जी ने इसका सही अर्थ समझाया था, जो किसी भी हालत में यह नहीं था। उन्होंने यह भी कहा था कि हो सकता है कि तुलसीदास जी ने यह अपने समय की परंपरा के अनुसार लिखा हो। उन्होंने कहा था,‘‘संस्कृत भाषा में लिखी प्रत्येक बात को भी कभी किसी ग्रन्थ-रचित बात नहीं मान लिया जाना चाहिए।’’


Mehtab-Ud-Din


-- -- मेहताब-उद-दीन

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