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अंग्रेज़ों की चालों में नहीं फंसे भारत के मसीही, सदा गांधी जी की ही बात मानी



 




 


मसीही समुदाय को प्रायः अपीलें किया करते थे गांधी जी

29 अगस्त, 1925 को बंगाल क्रिस्चियन कान्फ्ऱेंस को संबोधन करते समय गांधी जी ने अपनी पुरानी यादों को ताज़ा करते हुए बताया था कि ‘‘कई वर्ष पूर्व मैं काली चरण बैनर्जी से मिला था। यदि मुझे उनके घर जाने से पूर्व यह मालूम न होता कि वह मसीही हैं, तो मुझे उनके रहन-सहन व बोल-चाल के ढंग से कभी यह ज्ञात ही नहीं हो सकता था कि वह ईसाई है। उसका घर किसी आधुनिक हिन्दु के घर से भिन्न नहीं था - साधारण सा फ़र्नीचर था और उस महान् शख़्सियत ने पूर्णतया एक हिन्दु बंगाली की तरह ही वस्त्र पहने हुए थे, उसके तन पर कहीं पर भी यूरोपियन कपड़ों का नामो-निशान नहीं था।’’


मसीही समुदाय को प्रायः अपीलें किया करते थे गांधी जी

Gandhiji & Spinning Wheel तब गांधी जी ने केवल उस 1925 की कान्फ्ऱेंस में विद्यमान ईसाई प्रतिनिधियों से ही नहीं, अपितु उस समय देश के सभी ईसाईयों को संबोधित होते हुए कहा कि ‘‘क्या यह बात निंदनीय नहीं है कि भारत के बहुत से मसीही भाईयों- बहनों ने अपनी मातृ-भाषा का त्याग कर दिया है, अब वे अपने बच्चों को केवल अंग्रेज़ी बोलना ही सिखलाते हैं। क्या ऐसे लोगों ने स्वयं को राष्ट्र की मुख्य-धारा से अलग नहीं कर लिया है, जबकि वे उन्हीं के मध्य रहते हैं?’’ गांधी जी ने तब भारतीय ईसाईयों को अपील की थी कि वे यदि सूत नहीं कात सकते, तो कम से कम खद्दर तो पहन लिया करें। भारत का एक ग्रामीण अपने हाथ से खद्दर बुनता है और उसका तैयार किया ऐसा वस्त्र चार आन्ने का एक गज़ बाज़ार में मिलता है, इससे देश के दुःखी ग्रामीणों की सहायता होगी। क्योंकि उन्हें अब कहीं पर काम नहीं मिल रहा और उनके भूखे मरने की नौबत आ गई है। उन्होंने कहा था कि मसीही लोगों का धर्म ही मानवता की सेवा के आधार पर टिका हुआ है, इस लिए ईसाईयों को निर्धन ग्रामीणों की सहायता अवश्य करनी चाहिए। उन्होंने कहा था,‘‘यदि भारत के समूह ईसाई पूर्णतया भारतीय हैं, तो वे सभी राष्ट्रीय आन्दोलनों में भाग अवश्य लेंगे और इस समय भूखे मर रहे करोड़ों अन्य भारतीय नागरिकों के चरखे का सन्देश अवश्य सुनेंगे।’’


चर्च में भी घुस गया था जात-पात व भेदभाव

इसी प्रकार उन्होंने 7 जनवरी, 1929 को लन्दन स्थित चैथम हाऊस में अंग्रेज़ दर्शकों को संबंोधित होते हुए कहा था कि ‘‘अब तक जो भारत की स्वतंत्रता हेतु लड़े हैं व जेलों में गए हैं, वे सभी हिन्दु नहीं हैं, बल्कि उनमें कही हज़ारों मुसलमान, सिक्ख एवं ईसाई भी हैं।’’

फिर उन दिनों यह भी आरोप लगते थे कि मसीही समुदाय भी भारत की परंपराओं का अनुपालन करता हुआ छूतछात अर्थात अस्पृश्यता का भेदभाव मन में रखता था। तथाकथित निम्न वर्गों के लोग गांव के सामान्य कुंएं से पानी नहीं ले सकते थे तथा उनके बच्चे मुख्य स्कूल में शिक्षा ग्रहण नहीं कर सकते थे। बहुत से गिर्जाघरों में भी दलित लोगों के लिए बैठने के लिए अलग स्थान रखा जाता था। ‘मास मूवमैन्ट्स ऑफ़ दि रिप्रैज़ैन्टिव काऊँसिल ऑफ़ मिशन्ज़’ की स्थायी समिति ने तब इस मामले पर टिप्पणी करते हुए कहा था,‘‘हमें चमार जन-आन्दोलन में भाग लेने वाले मसीही कार्यकर्ताओं के समक्ष यह बात रखनी चाहिए कि चर्च में जात-पात की भावना का जो बड़ा ख़तरा मण्डराने लगा है, इस बुराई का ख़ात्मा अवश्य किया जाएगा। केवल बप्तिसमा की शर्त पर अपनी जाति से अलग नहीं होना चाहिए।’’ इस समिति के 10 सदस्यों में से आठ ने इस प्रस्ताव के समर्थन में मतदान किया था।


मसीही दलितों से पक्षपात से आहत होते थे गांधी जी

ऐसी परिस्थितियों से आहत हुए महात्मा गांधी जी ने 19 जनवरी, 1934 को त्रावनकोर (अब केरल) के नगर कोट्टायम में एक जन-सभा को संबोधन करते हुए कहा था कि उन्हें ‘‘कुछ मसीही हरिजनों से दुःखद शिकायतें मिली हैं कि मसीही समुदाय भी उनके साथ पक्षपात करता है। मसीही भाईयों-बहनों का तो यह उत्तरदायित्व बनता है कि वे छूतछात व अस्पृश्यता से टक्कर लें।’’ उन्होंने यह भी कहा था कि छूतछात तो ईसाई धर्म के मुख्य सिद्धांतों के ही विरुद्ध है, क्योंकि यह तो दुश्मन से भी प्रेम रखना सिखलाती है। सचमुच बाईबल के नए नियम में दर्ज है कि यीशु मसीह ने एक सामरी अर्थात दलित औरत के हाथ से पानी पिया था।


वैटिकन सिटी से सदैव ब्रिटिश दृष्टिकोण वाले ब्यान ही जारी हुए

यह बात भी दरुस्त है कि प्रारंभ में कुछेक (सभी नहीं) मसीही लोग गांधी जी को अच्छा नहीं समझते थे। यह बात स्वाभाविक रूप से समझ आ सकती है क्योंकि वे कुछेक मसीही लोग तब विदेशी मसीही प्रचारकों के प्रभाव तले हो सकते हैं (जबकि कुछ ब्रिटिश मसीही प्रचारक भी पूर्णतया भारतीय स्वतंत्रता सेनानियों का साथ भी दे रहे थे)। उन दिनों में अकाल बहुत पड़ते थे, तो ऐसे समयों में या कोई अन्य प्राकृतिक आपदाओं के दौरान जब आम लोगों को कुछ विदेशी आकर बचाते थे, तो भी भारत के लोग उस समय के अंग्रेज़ शासकों के पक्ष में बोलने लगते थे।


अंग्रेज़ों की चाल पूर्णतया समझते थे भारतीय मसीही

फिर वैटिकन सिटी के विचार महात्मा गांधी व उनके आन्दोलनों के पक्ष में नहीं थे। पोप या वैटिकन सिटी की ओर से जब भी कोई अधिकृत ब्यान जारी होता था तो वह अधिकतर भारतीयों की राजनीतिक इच्छाओं के पक्ष में नहीं होता था। रोमन चर्च का दैनिक समाचार-पत्र ‘ऑसरवेटोर रोमनो’ ज़्यादातर भारत के ऐसे रोष पर्दशनों (विशेषतया जिनमें ख़ून-ख़राबा हो जाया करता है या जब हिंसक घटनाएं हो जाती थीं) के समाचार कुछ विपरीत अन्दाज़ में प्रकाशित किया करता था। यह अख़बार प्रायः भारत की स्थिति को ब्रिटिश दृष्टिकोण से प्रस्तुत किया करता था। इस समाचार-पत्र ने कभी गांधी जी के किसी भी आन्दोलन के पक्ष में नहीं लिखा। देश में चलने वाले विभिन्न स्वतंत्रता आन्दोलनों को उस ने कभी राष्ट्रीय नहीं माना। ‘दि एग्ज़ामिनर’ नामक समाचार-पत्र तो ऐसे आन्दोलनों को केवल हिन्दु समुदाय तक ही सीमित तथा सांप्रदायिक बताया करता था। परन्तु भारत के सभी मसीही तो रोमन कैथोलिक नहीं थे और न ही अब हैं। अधिकतर मसीही भाई-बहनों को अंग्रेज़ शासकों की ऐसी चालों के बारे में भली-भांति जानकारी थी, इसी लिए वे ऐसी बातों पर ध्यान नहीं दिया करते थे और प्रायः गांधी जी एवं अन्य भारतीय नेताओं की बात को ही माना करते थे। उन्हें इस बात की समझ आ गई थी कि उन्हें स्वतंत्रता आन्दोलनों में भाग लेना ही होगा। परन्तु मसीही समुदाय के मन में ऐसे कुछ संशय सदा ही बने रहे कि पता नहीं स्वतंत्र भारत में उनकी स्थिति कैसी होगी। उन्होंने जब भी गांधी जी से इस संबंधी कोई प्रश्न किया, तो उन्होंने हर बार यही भरोसा दिलाया कि उनके साथ प्रत्येक परिस्थिति में न्यायपूर्ण व्यवहार ही होगा।


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-- -- मेहताब-उद-दीन

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